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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 116 विप्रतिपत्तिसद्भावाविशेषात्। प्रमाणरूपश्च यदि विधिः तदा प्रमेयमन्यद्वाच्यं। तत्स्वरूपमेव प्रमेयमितिचेत्, कथमस्यार्थद्वयरूपता न विरुध्यते? कल्पनयेतिचेत्, तीन्यापोहः शब्दार्थः कथं प्रतिषिध्यते? अप्रमाणत्वव्यावृत्त्या विधेः प्रमाणत्ववचनादप्रमेयत्वव्यावृत्त्या च प्रमेयत्वपरिकल्पनात् / पदार्थस्वरूपविधायकत्वमंतरेणान्यापोहमात्र-विधायकस्य शब्दस्य क्वचित्प्रवर्तकत्वायोगादन्यापोहो न शब्दार्थ इतिचेत्, तर्हि पदार्थस्वरूपविधायकस्यापि शब्दस्यान्यापोहानभिधायिनः कथमन्यपरिहारेण क्वचित्प्रवृत्तिनिमित्तत्वसिद्धिः येन विधिमात्रं शब्दार्थ: स्यात् / परमपुरुष एव विधिः स एव च प्रमाणं प्रमेयं चाविद्यावशादाभासते प्रतिभासमात्रव्यतिरेकेण व्यावृत्त्यादेरप्यसंभवादित्यपि दत्तोत्तरं, प्रतिभासव्यतिरिक्तस्य अप्रधानपना घटित हो जाता है। अतः वह विधि भी प्रतिष्ठा को अतिशय रूप से प्राप्त नहीं हो पाती है। क्योंकि कई दार्शनिकों की ओर से विवादों का सद्भाव विधि और नियोग दोनों में अन्तर रहित है अर्थात् समान है। विधि को यदि प्रमाणस्वरूप माना जायेगा तो उस समय उस प्रमाण रूप विधि करके जानने योग्य प्रमेय पदार्थ को पृथक् मानना पड़ेगा। यदि उस विधिस्वरूप ही प्रमेय पदार्थ माना जायेगा, तब तो स्वभावों से रहित इस एक निरंश विधि को प्रमाण और प्रमेय दो पदार्थ स्वरूपपना विरुद्ध क्यों नहीं होगा? यदि अद्वैतवादी कहे कि एक ही पदार्थ में कल्पना से दो पदार्थ (प्रमाण, प्रमेय) रूप बन जाता है इसमें कोई विरोध नहीं है इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो बौद्धों द्वारा स्वीकृत शब्द का अर्थ अन्यापोह अद्वैतवादियों द्वारा क्यों निषेध किया जाता है ? अप्रमाणपने की व्यावृत्ति से विधि को प्रमाणपना कह देना चाहिए और अप्रमेयपन की व्यावृत्ति से प्रमेयपना धर्म मान लेना चाहिए। पदार्थ के स्वरूपों की विधि का कथन करा देने के बिना ही केवल अन्यों की व्यावृत्ति का ही कथन करने वाले शब्द का कहीं किसी एक विवक्षित पदार्थ में प्रवर्तकपना घटित नहीं हो सकता। अत: अन्यापोह यहाँ शब्द का अर्थ नहीं है। इस प्रकार अद्वैतवादियों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि वस्तु के विधिस्वरूप का कथन करने वाले ही शब्द के द्वारा यदि अन्यापोह का कथन करना नहीं माना जायेगा तो उस अन्यापोह को नहीं कहने वाले शब्द का अन्यों का परिहार करके किसी एक नियत विषय में ही प्रवृत्ति का निमित्त कारणपना कैसे सिद्ध होगा? जिससे कि केवल विधि ही शब्द का अर्थ हो सके। अर्थात् जब तक विवक्षित पदार्थों से अतिरिक्त पड़े हुए पदार्थों की व्यावृत्ति नहीं की जायेगी तब तक उसी नियत पदार्थ में प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? परमब्रह्म ही तो विधि पदार्थ है और संसारी जीवों को वही अविद्या के वश से प्रमाण स्वरूप और प्रमेय स्वरूप प्रतिभासित होता है। केवल शुद्ध प्रतिभास के अतिरिक्त व्यावृत्ति आदि की भी असम्भवता है। विधिवादियों के इस वक्तव्य का भी उत्तर दिया जा चुका है। क्योंकि प्रतिभास से अतिरिक्त प्रतिभासने योग्य घट, पट आदि अर्थों की व्यवस्था करा दी जा चुकी है। अत: नियोग के समान विधि को भी प्रमाणात्मक मानने पर अनेक दोष आते हैं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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