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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 119 भवं प्रतीत्य यो जातो गुणं वा प्राणिनामिह / देशावधिः स विज्ञेयो दृष्टिमोहाद्विपर्ययः॥११५॥ सत्संयमविशेषोत्थो न जातु परमावधिः / सर्वावधिरपि व्यस्तो मन:पर्ययबोधवत् // 116 // परमावधिः सर्वावधिश्च न कदाचिद्विपर्ययः सत्संयमविशेषोत्थत्वात् मन:पर्ययवदिति। देशावधिरेव कस्यचिन्मिथ्यादर्शनाविर्भावे विपर्ययः प्रतिपाद्यते। किं पुनः कर्तुं प्रमाणात्मकसम्यग्ज्ञानविधौ प्रकृते विपर्ययं ज्ञानमनेकधा मत्यादि प्ररूपितं सूत्रकारैरित्याह इति प्रमाणात्मविबोधसंविधौ विपर्ययज्ञानमनेकधोदितम् / विपक्षविक्षेपमुखेन निर्णयं सुबोधरूपेण विधातुमुद्यतैः॥११७॥ भव को कारण मानकर अथवा क्षयोपशम रूप गुण को कारण मानकर प्राणियों के उत्पन्न हुई जो देशावधि है उसको दर्शन-मोहनीय कर्म का उदय हो जाने से विपर्यय ज्ञान समझना चाहिए। विशिष्ट प्रकार के श्रेष्ठ संयमी मुनि के उत्पन्न सर्वावधि और परमावधि कभी विपर्ययपने को प्राप्त नहीं होती है, जैसे कि मन:पर्यय ज्ञान का विपर्यय नहीं होता है। चरमशरीरी संयमी मुनि के होने वाले परमावधि और सर्वावधि ज्ञान कदाचिद् भी विपरीत नहीं होते हैं और ऋद्धिधारी विशेष मुनि के होने वाला मन:पर्यय ज्ञान भी सम्यग्दर्शन का समानाधिकरण होने से विपर्यय नहीं होता है। अवधिज्ञान में केवल देशावधि ही मिथ्यात्व या अनन्तानुबन्धी कर्म के उदय का साहचर्य प्राप्त होने पर विपरीत ज्ञानरूप विभंग हो जाती है॥११५-११६॥ अतीव श्रेष्ठ संयम विशेष से उत्पन्न होने के कारण परमावधि और सर्वावधि तो कभी विपरीत ज्ञानस्वरूप नहीं होती है। जैसे कि मन:पर्यय ज्ञान विपरीत नहीं होता है परन्तु देशावधि ही किसी जीव के मिथ्यादर्शन के प्रकट हो जाने पर विपर्यय कही जाती है। प्रमाणस्वरूप सम्यग्ज्ञान की विधि का प्रकरण चल रहा है। फिर सूत्रकार ने किस लिए मति आदि तीन ज्ञानों को अनेक प्रकारों से विपर्यय ज्ञान स्वरूप इस सूत्र द्वारा निरूपित किया है? ऐसी जिज्ञासा होने परं श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं - . इस पूर्वोक्त प्रकार प्रमाण स्वरूप सम्यग्ज्ञान की विधि हो जाने पर विपरीत पक्ष के खण्डन की 'मुख्यता से समीचीन बोधस्वरूप के द्वारा निर्णय का विधान करने के लिए उद्यत श्री उमास्वामी ने अनेक प्रकार के विपर्यय ज्ञान का इस सूत्र द्वारा कथन किया है। पहिले प्रकरणों में कथित सम्यग्ज्ञान का निरूपण तभी निर्णीत हो सकता है, जबकि उनसे विपरीत मिथ्याज्ञानों का ज्ञान करा दिया जाए। अतः तीनों मिथ्याज्ञानों से व्यावृत्त सम्यग्ज्ञान उपादेय है॥११७॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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