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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 94 सोऽयमेकादशविकल्पो नियोग एव वाक्यार्थ इत्येकांतो विपर्यय: प्रभाकरस्य तस्य सर्वस्याप्येकादशभेदस्य प्रत्येकं प्रमाणाद्यष्टविकल्पानतिक्रमात् / यदुक्तं प्रमाणं किं नियोग: स्यात्प्रमेयमथवा पुनः / उभयेन विहीनो वा द्वयरूपोथवा पुनः॥११३॥ शब्दव्यापाररूपो वा व्यापारः पुरुषस्य वा। द्वयव्यापाररूपो वा द्वयाव्यापार एव वा // 114 // तत्रैकादशभेदोपि नियोगो यदि प्रमाणं तदा विधिरेव वाक्यार्थ इति वेदांतवादप्रवेश: प्रभाकरस्य स्यात् यह पूर्वोक्त प्रकार ग्यारह भेद वाला नियोग ही वाक्य का अर्थ है। इस प्रकार प्रभाकरों का एकान्तरूप से आग्रह करना निरा विपर्ययज्ञान है। क्योंकि उन ग्यारहों भेद वाले भी सभी नियोगों का प्रत्येक में प्रमाण, प्रमेय आदि आठ विकल्पों के द्वारा अतिक्रमण नहीं हो सकता है। अर्थात् ग्यारहों भी नियोगों में प्रत्येक का प्रमाण, प्रमेय आदि विकल्प उठाकर विचार किया जाएगा तो वे ठीक-ठीक रूप से व्यवस्थित नहीं हो सकते हैं, जो ही विद्वानों ने कहा है। प्रभाकरों के प्रति भट्ट मतानुयायी पूछते हैं कि तुम्हारा माना हुआ वह नियोग क्या प्रमाण रूप है? या प्रमेयरूप है? अथवा क्या फिर प्रमाणप्रमेय दोनों से रहित है? अथवा क्या पुनः प्रमाणप्रमेय दोनों स्वरूप है? अथवा क्या शब्द के व्यापारस्वरूप है? तथा क्या पुरुष के व्यापारस्वरूप है? अथवा क्या शब्द और पुरुष दोनों का मिला हुआ व्यापार है? अथवा क्या शब्द और पुरुष के व्यापारों से रहित नियोग का स्वरूप है? // 113-114 // यहाँ श्री विद्यानन्द आचार्य नियोगवादी प्रभाकरों के मत का भट्ट मीमांसकों के द्वारा खंडन करा देते है। भाट्ट कहते हैं कि ग्यारह भेदवाला नियोग यदि उन आठ भेदों से पहिला भेद प्रमाण स्वरूप है, तब तो कर्त्तव्य अर्थ का उपदेश या शुद्ध सन्मात्रस्वरूप विधि ही वाक्य का अर्थ है। इस प्रकार प्रभाकर के यहाँ ब्रह्माद्वैत को कहने वाले वेदान्तवाद का प्रवेश होता है। क्योंकि प्रमाण तो चैतन्यात्मक है और चित्स्वरूप आत्मा केवल प्रतिभासमय है और वह शुद्ध प्रतिभास तो ब्रह्ममय है। केवल प्रतिभास से पृथक् कोई विधि घटादिक के समान कार्यरूप से प्रतीत नहीं होती है। घट, पट पुस्तक आदि जैसे कार्यरूप से प्रतीत होते हैं, वैसी विधि कार्यरूप नहीं दीख रही है। अथवा वचन, अंगुली द्वारा संकेत आदि के समान प्रेरक रूप से भी विधि नहीं जानी जाती है। ये व्यतिरेक दृष्टान्त हैं, अर्थात् - वचन चेष्टा आदि जैसे लोक में प्रेरक माने गये हैं, वैसी प्रतिभासरूप विधि प्रेरणा करने वाली नहीं है। कर्म को और करण को वाच्य अर्थ साधने वाले के द्वारा यदि विधि की प्रतीति होती है तब तो विधि में कार्यपन या प्रेरकपन के द्वारा ज्ञान होना उचित होता। अन्यथा (कर्म साधन या कारणसाधन रूप के बिना ही) शुद्ध सन्मात्र विधि की प्रतीति हो जाने पर तो कार्यपन या प्रेरकपन का ज्ञान करना उचित नहीं है। अर्थात् जो किया जाय वह कर्म है, जैसे घट-पट आदि और स्वकृत्य में पुरुष के द्वारा प्रेरा जाय वे वचन आदि प्रेरक करण हैं। किन्तु “विधीयते यत् या विधीयतेऽनेन' इस प्रकार निरुक्ति करके विधि शब्द नहीं सिद्ध होता है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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