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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 93 यंत्रारूढो नियोग इति कश्चित् / कामी यत्रैव यः कश्चिन्नियोगे सति तत्र सः। विषयारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्तते // 106 // भोग्यरूपो नियोग इत्यपरः॥ ममेदं भोग्यमित्येवं भोग्यरूपं प्रतीयते / ममत्वेन च विज्ञानं भोक्तर्येव व्यवस्थितम् // 107 // स्वामित्वेनाभिमानो हि भोक्तुर्यत्र भवेदयं / भोग्यं तदेव विज्ञेयं तदेवं स्वं निरुच्यते॥१०८॥ साध्यरूपतया येन ममेदमिति गम्यते। तत्प्रसाध्येन रूपेण भोग्यं स्वं व्यपदिश्यते॥१०९।। सिद्धरूपं हि यद्भोग्यं न नियोगः स तावता। साध्यत्वेनेह भोग्यस्य प्रेरकत्वान्नियोगता // 110 // पुरुष एव नियोग इत्यन्यः। ममेदं कार्यमित्येवं मन्यते पुरुषः सदा / पुंसः कार्यविशिष्टत्वं नियोगः स्यादबाधितः॥१११॥ कार्यस्य सिद्धौ जातायां तद्युक्तः पुरुषस्तदा। भवेत्साधित इत्येवं पुमान् वाक्यार्थ उच्यते॥११२॥ यंत्र में आरूढ़ होने के समान याग आदि कार्य में आरूढ़ हो जाना नियोग है। इस प्रकार कोई मीमांसक कह रहा है। ___ जो भी कोई जीव जिस स्वर्ग आदि विषय में तीव्र अभिलाषा रखने वाला होता है, वह जीव उस कार्य के करने में नियोग हो जाने पर अपने को याग आदि विषयों में आरूढ़ मान कर प्रवृत्त हो जाता है यह नौवाँ विधान है।॥१०६॥ ___कार्य कर चुकने पर भविष्य में जो भोग्यस्वरूप हो जाता है, वही वाक्य का अर्थ नियोग है, ऐसा कोई अन्य कह रहा है - .. किसी उपयोगी वाक्य को सुनकर मेरा यह भोग्य है, इस प्रकार भोग्यस्वरूप की प्रतीति हो जाती है। उस भोग्यस्वरूप में मेरेपन से जो विज्ञान होता है वह भोक्ता आत्मा में ही व्यवस्थित हो रहा है, भोक्ता आत्मा का जिस विषय में स्वामित्वका अभिप्राय होता है अर्थात् जिसका वह स्वामी है, वही पदार्थ भोग्य समझना चाहिए। वास्तव में तो वह आत्मा का स्वरूप ही स्व शब्द के द्वारा वाच्य किया जाता है। आत्मा अपने स्वभावों का भोक्ता है, मेरे द्वारा यह कार्य साध्य है। इस प्रकार साधने योग्य स्वरूप से जिस पुरुष के द्वारा यह जानलिया जाता है, वह साध्यरूप से निज स्वरूप भोग्य कह दिया जाता है, जो आत्मा का स्वरूप वह भोग्य है। उतने मात्र से वह नियोग नहीं है। क्योंकि भविष्य में साधने योग्यपने से यहाँ भोग्य की व्यवस्था है, जो स्वरूप भविष्य में भोगने योग्य होगा। अत: प्रेरकपने से भोग्य को नियोगपना इष्ट किया है, अर्थात् - भविष्य में करने योग्य ज्योतिष्टोम आदि यज्ञों से विशिष्ट आत्मा का स्वरूप भोग्य है। अतः भोग्य स्वरूप नियोग है, यह दसवाँ प्रकार नियोग का है॥१०६-११०॥ आत्मा ही नियोग है, इस प्रकार कोई अन्य प्रभाकर कह रहा है- यह मेरा कार्य है, इस प्रकार आत्मा सर्वदा मानता रहता है अतः पुरुषका कार्य से विशिष्टपना ही अबाधित नियोग है। यह नियोग विधिलिङ् का वाच्य अर्थ है। अत: कार्यसे युक्त पुरुष ही वाक्य का अर्थ कहा गया है। यह नियोग का ग्यारहवाँ भेद है॥१११-११२॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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