________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 92 कार्यसहिता प्रेरणा नियोग इत्यपरे / प्रेर्यते पुरुषो नैव कार्येणेह विना क्वचित् / ततश्चेत्प्रेरणा प्रोक्ता नियोगः कार्यसंगता // 10 // कार्यस्यैवोपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोग इत्यन्ये / प्रेरणाविषयः कार्यं न तु तत्प्रेरकं स्वतः। व्यापारस्तु प्रमाणस्य प्रमेय उपचर्यते // 102 // कार्यप्रेरणयोः संबंधो नियोग इत्यपरे / प्रेरणा हि विना कार्य प्रेरिका नैव कस्यचित् / कार्यप्रेरणयोर्योगो नियोगस्तेन सम्मतः।१०३॥ तत्समुदायो नियोग इति चापरे। परस्पराविनाभूतं द्वयमेतत्प्रतीयते। नियोगः समुदायोस्मात्कार्यप्रेरणयोर्मतः॥१०४॥ तदुभयस्वभावनिर्मुक्तो नियोग इति चान्ये। सिद्धमेकं यतो ब्रह्मगतमाम्नायतः सदा। सिद्धत्वेन च तत्कार्यं प्रेरकं कुत एव तत् // 105 // इस जगत् में कोई भी पुरुष कत्तव्यपने को जाने बिना किसी भी कार्य को करने में प्रेरित हो रहा नहीं पाया जाता है अत: कार्य से सहित हो रही प्रेरणा ही यहाँ अच्छा नियोग कही गयी है, यह नियोग का चतुर्थ प्रकार है॥१०१॥ अब कोई अन्य मीमांसक कह रहे हैं कि उपचार से कार्य का ही प्रवर्तकपना नियोग है। वेदवाक्यजन्य यागानुकूल व्यापारस्वरूप प्रेरणा है। यज्ञ करना, पूजन करना आदि कार्य उस प्रेरणा के कर्त्तव्य विषय हैं वह कार्य स्वयं अपने आप से यष्टा का प्रेरक नहीं है। किन्तु प्रमाण के व्यापार का उपचार प्रमेय में कर दिया जाता है॥१०२॥ __योगरूपकार्य और प्रेरणा का सम्बन्ध हो जाना नियोग है। इस प्रकार इतर मीमांसक कहते हैं। क्योंकि प्रेरणा बेचारी कार्य के बिना किसी भी पुरुष को प्रेरणा कराने वाली नहीं होती है। अत: कार्य और प्रेरणा का सम्बन्ध हो जाना ही नियोग सम्मत किया गया है। यह छठा नियोग है // 103 // उन कार्य और प्रेरणा का समुदाय हो जाना नियोग है। इस प्रकार कोई मीमांसक कहते हैं - परस्पर में अविनाभाव को प्राप्त होकर मिले हुए कार्य और प्रेरणा दोनों ही एकमेक प्रतीत हो रहे हैं। इस कारण कार्य और प्रेरणा का समुदाय यहाँ नियोग माना गया है। यह सातवाँ प्रकार है॥१०४॥ उन कार्य और प्रेरणा दोनों स्वभावों से विनिर्मुक्त हो रहा नियोग है। इस प्रकार कोई अन्य विद्वान् कह रहे हैं। वेदवाक्यों द्वारा सदा प्रसिद्ध, एक ब्रह्म तत्त्व है,जबकि परमात्मा अनादिकाल से सिद्ध है, अत: वह किसी का कार्य कैसे हो सकता है। प्रेरक तो वह कैसे भी नहीं हो सकता है, अत: कार्य और प्रेरणा इन दोनों स्वभावों से रहित नियोग है। नियोग का यह आठवाँ विधान है।।१०५॥