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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 91 प्रत्ययार्थी नियोगश्च यतः शुद्धः प्रतीयते। कार्यरूपश्च तेनात्र शुद्ध कार्यमसौ यतः // 16 // विशेषणं तु यत्तस्य किंचिदन्यत्प्रतीयते / प्रत्ययार्थो न तद्युक्तः धात्वर्थ: स्वर्गकामवत् // 97 / / प्रेरकत्वं तु यत्तस्य विशेषणमिहेष्यते। तस्याप्रत्ययवाच्यत्वात शद्धे कार्ये नियोगता // 9 // परेषां शुद्धा प्रेरणा नियोग इत्याशयः। प्रेरणैव नियोगोत्र शुद्धा सर्वत्र गम्यते। नाप्रेरितो यतः कश्चिनियुक्तं स्वं प्रबुध्यते // 19 // प्रेरणासहितं कार्यं नियोग इति केचिन्मन्यते। ममेदं कार्यमित्येवं ज्ञातं पूर्वं यदा भवेत् / स्वसिद्ध्यै प्रेरकं तत्स्यादन्यथा तन्न सिद्ध्यति // 100 // वह नियोग अनेक प्रकार का है। मीमांसकों के प्रभाकर, भट्ट, मुरारि ये तीन भेद हैं। प्राभाकरों की भी अनेक शाखाएँ हैं। अत: किन्हीं प्राभाकरों के यहाँ 'अजेत्' 'धिनुयात्' आदि में पड़े हुए लिङ् प्रत्यय और गच्छतु, यजताम् आदि में पड़े हुए लोट् प्रत्यय अथवा यष्टव्यं, श्रोतव्यं आदि में पड़े हुए तव्यप्रत्यय का अर्थ तो अन्य धात्वर्थ स्वर्गकाम, आत्मा आदि की नहीं अपेक्षा रखता हुआ शुद्ध कार्यस्वरूप ही नियोग है। ऐसा माना है। . क्योंकि प्रत्ययों का अर्थ शुद्ध कार्यस्वरूप नियोग प्रतीत होता है। अत: यह नियोग शुद्ध कार्यस्वरूप माना गया है। उस नियोग का जो कुछ भी अन्य विशेषण प्रतीत होता है, वह लिङ् आदि प्रत्ययोंका अर्थ माना जाय यह तो युक्तिपूर्ण नहीं है। जैसे कि यजि, पचि आदि धातुओं के अर्थ शुद्ध याग, पाक है। स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाला या तृप्ति की कामना करने वाला तो धात्वर्थ नहीं है। उस नियोग का विशेषण जो प्रेरकपना यहाँ माना गया है, वह तो प्रत्ययों का वाच्य अर्थ नहीं है। इस कारण शुद्ध कार्य में नियोगपना अभीष्ट किया गया है। यह प्रथम नियोग का अर्थ है।९६-९७-९८ // दूसरे मीमांसकों का यह कथन है कि शुद्ध प्रेरणा करना ही नियोग है। वह नियोग प्रत्यय का अर्थ इस प्रकरण में सर्वत्र शुद्ध प्रेरणारूप नियोग ही वाक्य द्वारा जाना जाता है। क्योंकि प्रेरणारहित कोई भी प्राणी अपने को नियुक्त नहीं समझ सकता यद्यपि नियुक्त और प्रेरित समानार्थक है तथापि नियोग का अर्थ शुद्ध प्रेरणा अर्थापत्ति से ज्ञात कर लिया जाता है। यह दूसरा नियोग है।९९॥ कोई प्रभाकरमतानुयायी मीमांसक प्रेरणा से सहित कार्य ही नियोग है, ऐसा मानते हैं - यह मेरा कर्त्तव्य कार्य है इस प्रकार जब पहिले ज्ञात हो जाता है, तभी तो वह वाक्य अपने वाक्य अर्थ यज्ञकर्म की सिद्धि कराने के लिए श्रोता पुरुष का प्रेरक हो सकेगा। अन्यथा यानी मेरा यह कर्त्तव्य है, इस प्रकार ज्ञान नहीं होने पर वह वाक्य प्रेरक सिद्ध नहीं होता है। अत: अकेली प्रेरणा या शुद्ध कार्य नियोग नहीं है। किन्तु प्रेरणा से सहित हुआ कार्य नियोग है। यह तीसरा प्रकार हुआ॥१००॥ अपर मीमांसक कहते हैं कि कार्य से सहित हो रही प्रेरणा नियोग है, अर्थात् पहिले तृतीय पक्ष में कार्य की. प्रधानता थी, अब प्रेरणा की मुख्यता है, यहाँ पर भी विशेषण को गौण और उससे सहित विशेष्य को मुख्य जान लेना चाहिए।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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