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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 90 संप्रति वाक्यार्थज्ञानविपर्ययमाहार्यं दर्शयन्नाहनियोगो भावनैकांताद्धात्वर्थो विधिरेव च / यंत्रारूढादिचार्थोन्यापोहो वा वचसो यदा // 14 // कैश्चिन्मन्येत तज्ज्ञानं श्रुताभं वेदनं तदा / तथा वाक्यार्थनिर्णीतेर्विधातुं दुःशकत्वतः // 15 // कः पुनरयं नियोगो नाम नियुक्तोहमनेन वाक्येनेति निरवशेषो योगो नियोगस्तत्र मनागप्ययोगाशंकायाः संभवाभावात्। स चानेकधा, केषांचिल्लिङादिप्रत्ययार्थः शुद्धोऽन्यनिरपेक्ष: कार्यरूपो नियोग इति मतम् // भावार्थ - अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, स्वार्थानुमान इन मतिज्ञानों में सहज विपर्ययरूप संशय, भ्रान्ति, अनध्यवसाय होते हैं। क्योंकि गृहीत मिथ्यादर्शन के समान जानबूझकर विपरीत जान लेना ऐसे मिथ्यादृष्टियों के आहार्यविपर्यय तो कुश्रुतज्ञानों में ही सम्भव हैं। हिंसा, चोरी, व्यभिचार को बुरा जानते हुए भी कुगुरु या मिथ्याशास्त्रों के उपदेश द्वारा अच्छा समझने लग जाते हैं। मिथ्यात्व, कषाय, मिथ्यासंस्कार, इन्द्रियलोलुपता आदि कारणों से जीवों की प्रवृत्ति विपर्ययज्ञामों की ओर झुक जाती है। अतः श्रुतज्ञान के आहार्य और सहज दोनों विपर्यय होते हैं, तथा मतिज्ञान के सहज ही विपर्यय हो सकते हैं। तथा हेतु की साध्य के साथ अभेद विवक्षा करने पर हेतु से उत्पन्न हुआ साध्यज्ञान तो मतिज्ञानरूप अनुमान है और हेतु से साध्य का अर्थान्तरभाव होने पर हेतु से उत्पन्न साध्यज्ञान श्रुतज्ञानरूप अनुमान है। स्वार्थानुमान को मतिज्ञान और परार्थानुमान को श्रुतज्ञानस्वरूप भी कह सकते हैं। अब इस समय श्रुतज्ञान के विशेष रूप वाक्यार्थज्ञान के आहार्य विपर्यय को दिखलाते हुए ग्रन्थकार कहते हैं - किन्हीं प्रभाकर मीमांसकों के द्वारा विधिलिंग लकारान्त वाक्यों का अर्थनियोग माना जाता है। और किन्हीं भट्ट मीमांसकों के द्वारा वाक्य का अर्थ एकान्तरूप से भावना माना जा रहा है। तथा किन्हीं ब्रह्माद्वैतवादियों के द्वारा सत्तामात्र शुद्ध धात्वर्थ विधि को ही विधिलिङन्त वाक्य का अर्थ स्वीकार किया जाता है। अथवा बौद्धों के द्वारा वचन का अर्थ अन्यापोह इष्ट किया जाता है। प्रभाकरों ने नियोग के यंत्रारूढ़ पुरुष आदि 11 भेद माने हैं। परन्तु प्रभाकर, कुमारिल भट्ट, ब्रह्माद्वैतवादी, आदि को जिस समय स्वकीयमतानुसार उन वाक्यों का ज्ञान हो रहा है, उस समय वह ज्ञान, कुश्रुतज्ञान या श्रुतज्ञानाभास है। क्योंकि जैसा वे वाक्य का अर्थ करते हैं, उस प्रकार वाक्य अर्थ के निर्णय का विधान करने के लिए उनकी अशक्यता है। अर्थात्-नियोग, भावना आदि को वाक्य का अर्थ कैसे भी निर्णय नहीं कर सकते हैं / / 94-95 / / यह प्रभाकर मीमांसकों द्वारा माना गया नियोग नामका क्या पदार्थ है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर मीमांसक कहते हैं कि मैं इस वाक्य के द्वारा अमुक कर्म करने में नियुक्त हो गया हूँ। इस प्रकार ‘नि' यानी निरवशेष तथा 'योग' यानी मन, वचन, काय और आत्मा की एकाग्रता होकर प्रवृत्ति हो जाना नियोग है। नियुक्त किये गये व्यक्ति का नियोज्यकर्म में परिपूर्ण योग लग रहा है। उसमें अत्यल्प भी योग नहीं लगने की आशंका की संभावना नहीं है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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