________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 95 प्रमाणस्य चिदात्मकत्वात्, चिदात्मनः प्रतिभासमात्रत्वात्तस्य च परब्रह्मत्वात् / प्रतिभासमात्राद्धि पृथग्विधिः कार्यतया न प्रतीयते घटादिवत् प्रेरकतया वचनादिवत् / कर्मकरणसाधनतया च हि तत्प्रतीतौ कार्यताप्रेरकताप्रत्ययो युक्तो नान्यथा। किं तर्हि, द्रष्टव्योऽरेऽयमात्मा श्रोतव्योऽनुमंतव्यो निदिध्यासितव्य इत्यादि श्रवणादवस्थांतरविलक्षणेन प्रेरितोहमिति जाताकूतेनाकारणैव स्वयमात्मैव प्रतिभाति स एव विधिरिति वेदांतवादिभिरभिधानात्। प्रमेयत्वं तर्हि नियोगस्यास्तु प्रमाणत्वे दोषाभिधानात् इति कश्चित् / तदसत्, प्रमाणवचनाभावात् / प्रमेयत्वे हि तस्य प्रमाणमन्यद्वाच्य, तदभावे क्वचित्प्रमेयत्वायोगात्। श्रुतिवाक्यं प्रमाणमिति चेन्न तस्याचिदात्मकत्वे प्रमाणत्वाघटनादन्यत्रोपचारात्। संविदात्मकत्वे श्रुतिवाक्यस्य पुरुष एव तदिति स एव प्रमाणं तत्संवेदनविवर्तश्च। नियुक्तोहमित्यभिधानरूपो नियोगः प्रमेय इति नायं पुरुषादन्यः प्रतीयते यतो वेदांतवादिमतानुप्रवेशोऽस्मिन्नपि पक्षे न संभवेत् / प्रमाणप्रमेयस्वभावो नियोग इतिचेत् सिद्धस्तर्हि चिद्विवर्तासौ प्रमाणरूपतान्यथानुपपत्तेः। तथा च स एव चिदात्मोभयस्वभावतयात्मानमादर्शयन् नियोग इति शंका - विधि क्या है? समाधान - इसका उत्तर यह है कि अरे! यह आत्मा दर्शन करने योग्य है। पहिले आत्मा का वेदवाक्यों द्वारा श्रवण करना चाहिए। तभी ब्रह्म ज्ञान में तत्परता हो सकती है। पुनः श्रुत आत्मा का युक्तियों से विचार कर अनुमनन करना चाहिए। श्रवण और मनन से निश्चित किये गये अर्थ का मन से परिचिन्तन करना चाहिए। अथवा “तत्त्वमसि' वह प्रसिद्ध परब्रह्मा तू है इत्यादि वैदिक शब्दों के श्रवण से मैं पहली अदर्शन, अश्रवण आदि की अवस्थाओं की अपेक्षा विलक्षण हो रही दूसरी अवस्थाओं के द्वारा इस समय प्रेरित हो गया हूँ। इस प्रकार ‘अहम्' का दर्शन आदि द्वारा प्रत्यक्ष कराने वाली उत्पन्न हुई आकारवाली चेष्टा करके स्वयं आत्मा ही प्रतिभासित है, वह आत्मा ही तो विधि है। इस प्रकार वेदान्तवादियों ने कथन किया है। . द्वितीयपक्षानुसार नियोग को प्रमाणपना मानने पर दोषों का कथन होने पर तो नियोग को प्रमेयत्व सिद्ध होता है। इस प्रकार कोई कह रहा है। जैनाचार्य कहते हैं कि उसका यह कथन भी असत्य है क्योंकि प्रमाण के वचन का अभाव है। अर्थात् प्रमाण के अभाव से प्रमेयत्व नहीं सिद्ध हो सकता, उस नियोग को प्रमेयपना मानने पर तो उसका ग्राहक अन्य कहना ही चाहिए। क्योंकि उस प्रमाण के बिना किसी भी पदार्थ में प्रमेयपन का योग नहीं हो सकता है। तथा श्रुतिवाक्यों को प्रमाण कहना उचित नहीं है। क्योंकि वचन जड़ होते हैं, तथापि उपचार से वचनों को प्रमाण कह दियाजाता है। उपचार के सिवाय उन वेदवाक्यों को चैतन्यात्मकपना व मुख्यरूप से प्रमाणपना घटित नहीं हो सकता है। यदि वेदवाक्यों को चैतन्य आत्मक माना जायेगा, तब तो परब्रह्म ही श्रुतिवाक्य होगा, ब्रह्म ही प्रमाण होगा और उसकी चैतन्यस्वरूप पर्यायें तो “मैं स्व में नियुक्त हो गया हूँ" इस प्रकार कथन करना स्वरूप नियोग प्रमेय हो गया। इस प्रकार यह प्रमेय तो परब्रह्म से पृथक् प्रतीत नहीं हो रहा है। जिससे कि इस प्रमेयरूप दूसरे पक्ष में भी वेदान्तवादियों