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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 89 / / सर्वस्य प्रत्यक्षं स्वत एव प्रमाणमिति प्रमाणमंतरेणाधिगच्छन् प्रमेयमपि तथाधिगच्छतु विशेषाभावात्। ततस्तैः प्रत्यक्षं किमु पोष्यत इति चिंत्यम्॥ प्रत्यक्षमनुमानं च प्रमाणे इति केचन / तेषामपि कुतो व्याप्तिः सिद्ध्येन्मानांतराद्विना // 153 // योप्याह-प्रत्यक्षं मुख्य प्रमाणं स्वार्थानिर्णीतावन्यानपेक्षत्वादिति तस्यानुमानं मुख्यमस्तु तत एव / न हि तत्तस्यामन्यानपेक्षं। स्वोत्पत्तौ तदन्यापेक्षमिति चेत् , प्रत्यक्षमपि तत्स्वनिमित्तमक्षादिकमपेक्षते न पुनः प्रमाणमन्यदितिचेत्, तथानुमानमपि। न हि तत्त्रिरूपलिंगनिश्चयं स्वहेतुमपेक्ष्य जायमानमन्यत्प्रमाणमपेक्षते। सभी प्राणियों के सभी प्रत्यक्ष स्वयं अपने आप ही से प्रत्यक्ष होकर प्रमाण रूप निर्णीत हो रहे हैं। इस सिद्धान्त को प्रमाण के बिना ही अधिगम करने वाले चार्वाक घट, पट आदि प्रमेयों को भी उसी प्रकार प्रमाण के बिना ही जान लेवे। दोनों प्रकार के ज्ञेयों में कोई विशेषता नहीं है, तो फिर उन चार्वाकों के द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाण ही क्यों पुष्ट किया जा रहा है? इस बात का आप स्वयं चिन्तन करें। बौद्ध और चार्वाक का प्रमाण के विषय में कथन ___ कोई कहते हैं कि सूत्र में "प्रमाणे" यह द्विवचन ठीक है। प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण हैं। उनके प्रति आचार्य कहते हैं कि उन बौद्ध या वैशेषिकों के यहाँ भी अन्य तर्क प्रमाण को माने बिना साध्य और साधन की व्याप्ति कैसे सिद्ध होगी? __भावार्थ : अनुमान में व्याप्ति की आवश्यकता है। उसको जानने के लिए तर्कज्ञान मानना आवश्यक होगा। मिथ्याज्ञानस्वरूप तर्क से समीचीन अनुमान उत्पन्न नहीं हो सकता है॥१५३॥ - चार्वाक कहता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही अकेला मुख्य प्रमाण है, क्योंकि प्रत्यक्ष के स्व और अर्थ के निर्णय करने में अन्य ज्ञानों की अपेक्षा नहीं होती है। ... उसके मत में अनुमान प्रमाण भी स्व और अर्थ के निर्णय करने में अन्य की अपेक्षा न रखने के कारण मुख्य प्रमाण हो जायेगा क्योंकि उस अनुमान के भी स्व और अर्थ के निर्णय करने में दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नहीं है। यदि कोई कहे कि वह अनुमान अपनी उत्पत्ति में अन्य हेतु (व्याप्ति ज्ञान) आदि की अपेक्षा रखता है तो वह प्रत्यक्ष भी अपने निमित्त कारण इन्द्रिय, आलोक आदि की अपेक्षा रखता ही है, दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा नहीं रखता है (क्योंकि सभी कार्य अपनी उत्पत्ति में कारणों की अपेक्षा रखते हैं)। इस प्रकार अनुमान भी अपने उत्पादक निमित्तों की अपेक्षा रखता है। यदि कहो कि प्रत्यक्ष ज्ञान स्वविषय की ज्ञप्ति कराने में अन्य प्रमाणों को नहीं चाहता है सो पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्तिस्वरूप अथवा कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धिस्वरूप या पूर्ववत् शेषवत् सामान्य तो दृष्टरूप तीन रूप वाले लिंग के निश्चय करने रूप अपने हेतु की अपेक्षा से उत्पन्न अनुमान भी किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नही करता है किन्तु जो तीन स्वरूप वाले हेतु को जानने वाला प्रमाण है, वह तो अनुमान की उत्पत्ति का कारण ही नहीं होता है क्योंकि व्याप्तियुक्त हेतु के जानने में ही वह लिंगज्ञान कृतकृत्य हो जाता है (अतः स्वार्थों को जानने में प्रत्यक्ष के समान अनुमान भी स्वतंत्र है)।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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