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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 90 यत्तु त्रिरूपलिंगग्राहि प्रमाणं तदनुमानोत्पत्तिकारणमेव न भवति, लिंगपरिच्छित्तावेव चरितार्थत्वात् / यदप्यभ्यधायि, प्रत्यक्षं मुख्यं प्रमाणांतरजन्मनो निमित्तत्वादिति तत्रिरूपलिंगादिनानैकांतिकं / यदि पुनरर्थस्यासंभवेऽभावात् प्रत्यक्षं मुख्यं तदानुमानमपि तत एव विशेषाभावात्। तदुक्तं—“अर्थस्यासंभवे भावात् प्रत्यक्षेपि प्रमाणता / प्रतिबंधस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम्" इति। संवादकत्वात्तन्मुख्यमिति चेत् तत एवानुमानं न पुनभ्यामर्थं परिच्छिद्य प्रवर्तमानोर्थक्रियायां विसंवाद्यते। वस्तुविषयत्वान्मुख्यं प्रत्यक्षमिति चेत् तत एवानुमानं तथास्तु प्राप्यवस्तुविषयत्वादनुमानस्य वस्तुविषयं प्रामाण्यं द्वयोः इति वचनात्। ततो मुख्ये द्वे एव प्रमाणे प्रत्यक्षमनुमानं चेति केचित् ,तेषामपि यावत्कश्चिद्धूमः स सर्वोप्यग्निजन्मानग्निजन्मा वा न भवतीति व्याप्तिः साध्यसाधनयोः कुतः प्रमाणांतराद्विनेति चिंत्यम्॥ चार्वाका ने जो यह कहा था कि प्रत्यक्ष प्रमाण ही मुख्य है, क्योंकि वह अन्य प्रमाणों के जन्म देने का निमित्त है, इस पर बौद्ध कहते हैं कि इस प्रकार वह हेतु त्रिरूपलिंग, सादृश्यज्ञान, संकेतज्ञान, व्याप्ति ज्ञान आदिक से व्यभिचारी हो जाता है (ये लिंग आदिक अनुमान आदि प्रमाणों की उत्पत्ति के कारण हैं, किन्तु चार्वाकों ने अनुमान को मुख्य प्रमाण नहीं माना है)। यदि फिर चार्वाक कहे कि वस्तुभूत अर्थ के न होने पर प्रत्यक्षप्रमाण उत्पन्न नहीं होता है अत: प्रत्यक्ष प्रमाण मुख्य है। तब तो अनुमान भी अर्थ के न होने पर मुख्य प्रमाण हो जायेगा। इन दोनों में कोई विशेषता नहीं है। वहीं बौद्धों के यहाँ कहा है कि अर्थ के विद्यमान नहीं होने पर प्रत्यक्ष में भी प्रमाणता का अभाव है और ज्ञान का अर्थ के साथ अविनाभाव संबंध रखने वाले स्वभाव को यदि प्रमाणपने का हेतु माना जायेगा तब तो दोनों प्रत्यक्ष और अनुमान समान कोटि के प्रमाण हैं। अर्थात्-स्वलक्षण क्षणिकपन आदि वस्तुभूत अर्थों के होने पर ही उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों का प्रमाणपना एक सा है। __ सफल प्रवृत्ति का जनक होने से तथा संवादक से यदि उस प्रत्यक्ष को मुख्य कहते हो तो उसी प्रकार संवादक होने से अनुमान भी मुख्य हो जायेगा। दोनों प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से अर्थ की परिच्छित्ति करके प्रवृत्त होने से ज्ञान अर्थक्रिया में विसंवाद को प्राप्त नहीं कराता है अर्थात्-अनुमान से अग्नि, जल का निर्णय कर सफल अर्थक्रियायें ठीक-ठीक हो जाती हैं। बौद्ध कहते हैं कि यदि चार्वाक यथार्थवस्तु को विषय करने वाला होने के कारण प्रत्यक्ष को मुख्य प्रमाण कहते हैं तो प्राप्य वस्तु का विषय करने वाला होने से अनुमान भी मुख्य प्रमाण हो जायेगा अत: प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही मुख्य प्रमाण हैं। जैनों के “तत्प्रमाणे" सूत्र का अर्थ प्रत्यक्ष और परोक्ष नहीं, अपितु प्रत्यक्ष और अनुमान करना हमें अभीष्ट है। इस प्रकार “योऽप्याह" से लेकर “अनुमानं च" तक किसी बौद्ध ने कथन किया है। अब जैन आचार्य कहते हैं कि उन बौद्धों के यहाँ जितने भी कोई धूम हैं, वे सभी अग्नि से जन्म लेने वाले हैं। अग्नि से भिन्न पदार्थों से वे उत्पन्न होने वाले नहीं हैं इस प्रकार सम्पूर्ण देश और काल को व्यापकर होने वाली साध्य और साधन की व्याप्ति को तीसरे तर्क प्रमाण के बिना किससे जान सकोगे? इस प्रश्न के उत्तर का विचार करना चाहिए।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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