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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 88 स्वस्याध्यक्षं सर्वस्य वा स्वतो वा सिद्ध्येत् प्रत्यक्षांतराद्वेति पर्यनुयोगोऽवश्यंभावी॥ . स्वस्यैव चेत् स्वतः सिद्धं नष्टं गुर्वादिकीर्तनम् / तदव्यक्तप्रमाणत्वसिद्ध्यभावात्कथंचन // 149 // प्रत्यक्षांतरतो वास्य सिद्धौ स्यादनवस्थितिः। क्वचित्स्वतोऽन्यतो वेति स्याद्वादाश्रयणं परम् // 150 // सर्वस्यापि स्वतोध्यक्षप्रमाणमिति चेन्मतिः। केनावगम्यतामेतदध्यक्षाद्योगिविद्विषाम् // 151 // प्रमाणांतरतो ज्ञाने नैकमानव्यवस्थितिः। अप्रमाणाद्गतावेव प्रत्यक्षं किमु पोष्यते // 152 // प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण मानने वाले चावाकों के ऊपर इस प्रकार का प्रश्न अवश्य होता है कि अपना प्रत्यक्ष अथवा सम्पूर्ण प्राणियों के प्रत्यक्ष क्या स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं? अथवा अन्य प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध किया जाता है? (अर्थात्-एक प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने पर स्वकीय सिद्धि और दूसरों के प्रत्यक्ष प्रमाण कैसे जाने जाते हैं?) यदि अपने ही प्रत्यक्षों की अपने आपसे सिद्धि होना इष्ट करोगे तो उस अव्यक्त प्रमाण को प्रत्यक्ष प्रमाण का अभाव होने से, गुरु आदि का कीर्तन-स्तुति करना नष्ट हो जाता है। किसी प्रकार से भी प्रत्यक्ष प्रमाण से गुरु आदि की सिद्धि नहीं हो सकती। अर्थात् प्रत्यक्ष वा अव्यक्त प्रमाण से गुरु आदि के गुणों को जानना शक्य नहीं है और गुणों के जाने बिना स्तुति कैसे कर सकते हैं? // 149 // (अथवा बहुत वर्ष पूर्व हो चुके गुरुओं का या उनके प्रत्यक्ष ज्ञानों को तुम प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हो। फिर स्तुति किसकी की जाय?) गुरु आदि के इस प्रत्यक्ष की यदि आप अन्य प्रत्यक्षों से सिद्धि होना मानोगे तो उन प्रत्यक्षों की सिद्धि भी अन्य प्रत्यक्षों से होगी और उनकी भी अन्यों से होगी। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा (क्योंकि अज्ञात पदार्थ तो किसी का ज्ञापक नहीं होता है) कहीं स्वतः प्रत्यक्षों से यदि प्रत्यक्ष ज्ञानों की सिद्धि होना मानोगे तो स्याद्वादसिद्धान्त का आश्रय लेना ही पड़ेगा // 150 // यदि सम्पूर्ण जीवों के सभी प्रत्यक्षों का स्वयं अपने आप ही प्रत्यक्ष होकर प्रमाणपना प्रसिद्ध हो तब तो सम्पूर्ण प्राणियों को अपने-अपने प्रत्यक्षों का स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण होता है यह किसके द्वारा जाना जाता है? इस बात का निर्णय कैसे हो सकता है? प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्पूर्ण पदार्थों का एक ही समय में अवलोकन करने वाले केवलज्ञानी योगियों से विशेष द्वेष करने वाले चार्वाकों के यहाँ यह निर्णय किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है कि सबके प्रत्यक्ष अपने-अपने स्वरूप में व्यवस्थित हैं॥१५१॥ ___अन्य प्रमाणों से यदि सम्पूर्ण प्राणियों के प्रत्यक्षों का ज्ञान होना इष्ट करोगे तो चार्वाकों के यहाँ एक ही प्रत्यक्ष प्रमाण मानने की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अर्थात् दूसरों के प्रत्यक्षप्रमाणों को जानने के लिए अनुमान, आगम की भी शरण लेनी पड़ती है। यदि अप्रमाणज्ञान से ही उन प्राणियों के प्रत्यक्षों को जान लेना मानोगे तो फिर एक प्रत्यक्ष को भी प्रमाणपना क्यों पुष्ट किया है॥१५२॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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