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________________ __तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 87 एवं विचारतो मानस्वरूपे तु व्यवस्थिते। तत्संख्यानप्रसिद्ध्यर्थं सूत्रे द्वित्वस्य सूचनात् // 146 // तत्प्रमाणे, इति हि द्वित्वनिर्देशः संख्यांतरावधारणनिराकरणाय युक्तः कर्तुं तत्र विप्रतिपत्तेः॥ प्रमाणमेकमेवेति केचित्तावत् कुदृष्टयः। प्रत्यक्षमुख्यमन्यस्मादर्थनिर्णीत्यसंभवात् // 147 // प्रत्यक्षमेव मुख्यं स्वार्थनिर्णीतावन्यानपेक्षत्वादन्यस्य प्रमाणस्य जन्मनिमित्तत्वात् न पुनरनुमानादि तस्य प्रत्यक्षापेक्षत्वात् प्रत्यक्षजननानिमित्तत्वाच्च गौणतोपपत्तेः। न च गौणं प्रमाणमतिप्रसंगात्। ततः प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणमगौणत्वात् प्रमाणस्येति केचित्॥ तेषां तत्किं स्वतः सिद्धं प्रत्यक्षांतरतोपि वा। स्वस्य सर्वस्य चेत्येतद्भवेत् पर्यनुयोजनम्॥१४॥ इस प्रकार उक्त विचार करने से प्रमाण का स्वरूप व्यवस्थित हो जाने पर उस प्रमाण की संख्या की प्रसिद्धि के लिए “तत्प्रमाणे” इस सूत्र में द्विवचन “औ" विभक्ति के द्वारा प्रमाण के दो पने का सूचन किया गया है॥१४६।। प्रत्यक्ष और परोक्ष स्वरूप दो प्रमाणों में सारे प्रमाण गर्भित हैं, इसका कथन ___ “तत्प्रमाणे" सूत्र में नियम से द्विवचनपने का कथन करना अन्य नैयायिक, मीमांसक आदि द्वारा मानी गयी प्रमाणों की संख्याओं के नियम को निवारण करने के लिए किया गया है, क्योंकि उस प्रमाण की संख्या में अनेक वादियों का विवाद पड़ा हुआ है। . प्रमाण में विवाद करने वालों में कोई (चार्वाक) मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि प्रमाण एक ही है। सम्पूर्ण ज्ञानों में मुख्य प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि अन्य अनुमान, आगम आदि से अर्थ का निर्णय होना असम्भव है।।१४७॥ प्रत्यक्ष ही मुख्य प्रमाण है क्योंकि अपने और अर्थ के निर्णय करने में उसको अन्य की अपेक्षा नहीं है। तथा प्रत्यक्ष ही अन्य अनुमान आदि प्रमाणों के जन्म का निमित्त है। (अतः, प्रत्यक्ष ही मुख्य प्रमाण है।) तथा अनुमान, उपमान आदिक मुख्य ज्ञान नहीं हैं, क्योंकि उनको प्रत्यक्ष की अपेक्षा होने के कारण तथा प्रत्यक्ष के जन्म का निमित्तपना नहीं होने के कारण गौणपना प्रसिद्ध है; गौण पदार्थ प्रमाण नहीं होता है, यदि गौण को प्रमाण मानेंगे तो अतिप्रसंग दोष आता है। अत: एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। अगौण (मुख्य) होने से सम्पूर्ण विषयों की व्यवस्था करने वाला प्रमाण पदार्थ तो अगौण होना चाहिए। इस प्रकार किसी (चार्वाक) के कहने पर आचार्य कहते हैं उन चार्वाकों के यहाँ स्वयं अपने पूर्वापरकालभावी अनेक प्रत्यक्ष और अन्य सम्पूर्ण प्राणियों के प्रत्यक्षप्रमाण क्या स्वत: ही सिद्ध हैं? अथवा अन्य प्रत्यक्षों से भी वे सिद्ध किये जाते हैं? इस प्रकार प्रश्न करना उनके ऊपर लागू होता है॥१४८॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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