________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 84 प्रसिद्धनाप्रसिद्धस्य विधानमिति नोत्तरम्। प्रसिद्धस्याव्यवस्थानात् प्रमाणविरहे क्वचित् // 137 // परानुरोधमात्रेण प्रसिद्धोर्थो यदीष्यते। प्रमाणसाधनस्तद्वत्प्रमाणं किं न साधनम् // 138 // पराभ्युपगमः केन सिद्ध्यतीत्वपि च द्वयोः। समः पर्यनुयोगः स्यात्समाधानं च नाधिकम् // 139 // तत्प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारः प्रवर्तते। सर्वस्याप्यविचारेण स्वप्नादिवदितीतरे॥१४०॥ तेषां संवित्तिमात्रं स्यादन्यद्वा तत्त्वमंजसा। सिद्धं स्वतो यथा तद्वत्प्रमाणमपरे विदुः॥१४१॥ यथा स्वातंत्र्यमभ्यस्तविषयेऽस्य प्रतीयते। प्रमेयस्य तथा नेति न प्रमान्वेषणं वृथा // 142 // परतोपि प्रमाणत्वेऽनभ्यस्तविषये क्वचित् / नानवस्थानुषज्येत तत एव व्यवस्थितेः॥१४३॥ प्रसिद्ध पदार्थ से अप्रसिद्ध प्रमाण या प्रमेय की व्यवस्था कर ली जाती है, उस प्रकार का उत्तर .भी ठीक नहीं है क्योंकि कहीं भी निर्णीत रूप से प्रमाणतत्त्व को माने बिना प्रसिद्धतत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकती है॥१३७॥ यदि कोई कहे कि दूसरों के अनुरोध मात्र से पदार्थ को प्रसिद्ध मान लिया जाता है, जो कि प्रसिद्ध पदार्थ प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों को साधने वाला है, तो उसी प्रकार प्रमाण का साधन भी क्यों न कर लिया जाय? (तात्त्विकरूप से प्रमाण को मानने की आवश्यकता नहीं है)॥१३८॥ दूसरे वादियों का स्वीकार करना किस प्रमाण से सिद्ध है? इस प्रकार का प्रश्न उठाना और समाधान करना प्रमाण को मानने वाले और नहीं मानने वाले दोनों के एकसा है। कोई अधिक नहीं है अतः प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता आदिक व्यवहार सभी के यहाँ बिना विचार करके ही प्रवर्त्त रहे हैं, जैसे कि स्वप्न, मूर्च्छित, आदि के व्यवहार बिना विचारे ही प्रचलित हैं। इस प्रकार यहाँ तक अन्य बौद्ध या शून्यवादी का कथन है॥१३९-१४० // शून्यवादियों के कथन का प्रत्युत्तर-जैसे उन बौद्धों के यहाँ केवल संवित्ति अथवा अन्य कोई शून्य पदार्थ या तत्त्वोपप्लव तत्त्व का वास्तव में अपने आप सिद्ध होना माना गया है, उसी के समान दूसरे जैन, मीमांसक, नैयायिक आदि विद्वान् प्रमाणतत्त्व को स्वतः सिद्ध होना मानते हैं तथा जिस प्रकार अभ्यास किये गये परिचित विषय में इस प्रमाण को स्वतंत्ररूप से प्रमाणपना प्रतीत होता है उसी प्रकार प्रमेय पदार्थ को स्वतंत्रपना नहीं जाना जा रहा है। अतः प्रमेय की सिद्धि को कराने के लिए प्रमाण का अन्वेषण करना व्यर्थ नहीं है। यद्यपि कहीं अपरिचित स्थल पर अभ्यस्त नहीं किये गए विषय में प्रमाणज्ञान की प्रमाणता दूसरे ज्ञापकों से भी जानी जाती है तो भी अनवस्था दोष का प्रसंग नहीं आता है। क्योंकि उसी अभ्यास दशावाले दूसरे प्रमाण से अनभ्यस्त दशा के प्रमाण में प्रमाणपन की व्यवस्था हो जाती है (अत: सम्पूर्ण प्रमाण, प्रमेय आदि पदार्थों का आद्य चिकित्सक प्रमाणतत्त्व अवश्य मानना चाहिए ) // 141-142-143 // .