________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 85 स्वरूपस्य स्वतो गतिरिति संविदद्वैतं ब्रह्म वा स्वतः, सिद्धमुपयन्नभ्यस्तविषये सर्वं प्रमाणं तथाभ्युपगंतुमर्हति / नोचेदनवधेयवचनो न प्रेक्षापूर्ववादी। न च यथा प्रमाणं स्वतः सिद्धं तथा प्रमेयमपि तस्य तद्वत्स्वातंत्र्याप्रतीतेः तथा प्रतीतौ वा प्रमेयस्य प्रमाणत्वापत्तेः, स्वार्थप्रमितौ साधकतमस्य स्वतंत्रस्य प्रमाणत्वात्मकत्वात्। ततो न प्रमाणान्वेषणमफलं, तेन विना स्वयं प्रमेयस्याव्यवस्थानात्। यदा पुनरनभ्यस्तेर्थे परतः प्रमाणानां प्रामाण्यं तदापि नानवस्था परस्पराश्रयो वा स्वतः सिद्धप्रामाण्यात् कुतश्चित्क्वचित्प्रमाणादवस्थोपपत्तेः / ननु च क्वचित्कस्यचिदभ्यासे सर्वत्र सर्वस्याभ्यासोस्तु विशेषाभावादनभ्यास एव प्रतिप्राणि तद्वैचित्र्यकारणाभावात्। तथा च कुतोभ्यासानभ्यासयोः स्वत: परतो वा प्रामाण्यव्यवस्था भवेदिति चेत्। नैवं, तद्वैचित्र्यसिद्धेः॥ ज्ञानाद्वैतवादी या ब्रह्माद्वैतवादी विद्वान् सम्पण पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान होना स्वत: ही मानते हैं। ज्ञान और आत्मा का स्वयं अपने आप से ज्ञान होना प्रसिद्ध ही है तो अभ्यस्तविषय में सम्पूर्ण प्रमाणों को उस प्रकार स्वतः सिद्ध स्वीकार करने के लिए भी वह अवश्य योग्य हो जाता है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो विश्वास नहीं करने योग्य कथन करने वाला होने से विचारपूर्वक कहने वाले नहीं कहे जा सकते (अत: अभ्यासदशा में प्रमाण की स्वतः सिद्धि होना मान लेना चाहिए)। जिस प्रकार प्रमाणतत्त्व स्वतः सिद्ध है उस प्रकार घट, पट आदि प्रमेय स्वतः सिद्ध नहीं होते हैं। क्योंकि उन प्रमेयों को प्रमाण के समान सिद्धि होने में स्वतंत्रता प्रतीत नहीं हो रही है। यदि प्रमेय की भी उस प्रकार स्वतंत्रता से स्वयं प्रतीति होना मानी जायेगी तो प्रमेय को प्रमाणपने का प्रसंग आयेगा। क्योंकि स्व और अर्थ की प्रमिति स्वतंत्र साधकतम के ही प्रमाणपना व्यवस्थित है। इसलिए प्रमाण का अन्वेषण करना व्यर्थ वा निष्फल नहीं है क्योंकि उस प्रमाण के बिना प्रमेय तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो पाती है। जब अनभ्यस्त विषय में प्रमाणों की प्रमाणता अन्य ज्ञापक कारणों से मानी जायेगी तो भी अनवस्था अथवा अन्योन्याश्रय दोष नहीं आते हैं क्योंकि किसी भी अनभ्यास दशा के प्रमाण में अभ्यास दशा के स्वतः सिद्ध प्रमाणता वाले किसी भी स्वतंत्र प्रमाण से प्रमाणता अवस्थित हो जाती है। शंका : कहीं भी विशेष अभ्यस्तस्थल पर किसी व्यक्ति का यदि अभ्यास माना जायेगा तो सभी स्थलों पर सब जीवों का अभ्यास होना निश्चित होगा क्योंकि दोनों में विशेषता का अभाव है (तथा यदि किसी जीव का किसी अपरिचित स्थल पर अनभ्यास माना जायेगा तो सभी जीवों का सभी स्थानों पर अनभ्यास ही होगा), क्योंकि प्रत्येक प्राणी में उस अभ्यास या अनभ्यास की विचित्रता का कोई कारण नहीं है अतः अभ्यासदशा में स्वतः प्रमाणपने की व्यवस्था और अनभ्यासदशा में दूसरों से प्रमाणपने की व्यवस्था कैसे होगी? समाधान : ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार शंका नही करना क्योंकि संसारी जीवों के उस अभ्यास और अनभ्यास की विचित्रता के कारण सिद्ध हैं।