________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 83 नन्वसिद्धं प्रमाणं किं स्वरूपेण निरूप्यते। शशशृंगवदित्येके तदप्युन्मत्तभाषितम् // 133 // स्वेष्टानिष्टार्थयोञ्जतुर्विधानप्रतिषेधयोः / सिद्धिः प्रमाणसंसिद्ध्यभावेस्ति न हि कस्यचित् // 134 // इष्टार्थस्य विधेरनिष्टार्थस्य वा प्रतिषेधस्य प्रमाणानां तत्त्वतोऽसंभवे कदाचिदनुपपत्तेर्न स्वरूपेणासिद्धं प्रमाणमनिरूपणात् शशशृंगवन्नास्ति प्रमाणं विचार्यमाणस्यायोगादिति स्वयमिष्टमर्थं साधयन्ननिष्टं च निराकुर्वन् प्रमाणत एव कथमनुन्मत्तः। ततः प्रमाणसिद्धिरादायाता॥ ननु प्रमाणसंसिद्धिः प्रमाणांतरतो यदि। तदानवस्थिति! चेत् प्रमाणान्वेषणं वृथा // 135 // आद्यप्रमाणतः स्याच्चेत्प्रमाणांतरसाधनम् / ततश्चाद्यप्रमाणस्य सिद्धेरन्योन्यसंश्रयः॥ 136 // ऐसा नहीं है जो स्वतः प्रमाण है वह स्वतः ही प्रमाण रहे तथा जो पर से प्रमाण होता है वह पर से ही प्रमाण होता है, इस प्रकार सर्वथा एक ही धर्म मानने का प्रसंग आता है जो कि प्रतीतसिद्ध नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर स्वत: और परत: इन दोनों पक्षों में दिये गये दोषों का प्रसंग आता है। शंका : कोई कहता है कि जब प्रमाण अपने स्वरूप से सिद्ध नहीं है, तो शश के सींग समान उसका निरूपण क्यों किया जाता है? उत्तर : आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना भी उन्मत्तों का भाषण है क्योंकि किसी नास्तिक ज्ञाता को अपने इष्ट अर्थ के अस्तित्व की और अपने अनिष्ट अर्थ के निषेध की सिद्धि प्रमाण की सिद्धि के अभाव . में किसी के भी नहीं होती है (इष्ट साधन और अनिष्टबाधन ये दोनों प्रमाण की सिद्धि होने पर ही सम्भव हैं) अन्यथा नहीं॥१३३-१३४॥ वास्तविक रूप से प्रमाणों की असम्भवता होने पर इष्ट अर्थ की विधि और अनिष्ट अर्थ के निषेध की कभी भी सिद्धि नहीं हो सकती है अत: प्रमाणतत्त्व स्वरूप से असिद्ध नहीं है जिसका शशशृङ्ग के समान निरूपण नहीं किया जा सके। यदि शून्यवादी कहे कि प्रमाण नहीं है, विचार करने पर प्रमाणतत्त्व का योग नहीं बन पाता है। इस प्रकार स्वयं इष्ट अर्थ को दूसरों के प्रति प्रमाण में सिद्ध करने वाला और प्रमाण प्रमेय आदि अनिष्ट तत्त्वों को प्रमाण से ही निराकरण करने वाला शून्यवादी स्वस्थ कैसे कहा जा सकता है? (पूर्वापरविरुद्ध बातों को कहने वाला होने से वह उन्मत्त है)। अत: बिना कहे ही अर्थापत्ति से प्रमाण की सिद्धि हो जाती है। प्रश्न : (वैभाषिक बौद्ध कहते हैं कि) प्रमाण की सिद्धि यदि दूसरे प्रमाणों से होना मानोगे तो अनवस्था दोष आयेगा (क्योंकि उन दूसरे आदि प्रमाणों की सिद्धि अन्य तीसरे, चौथे आदि प्रमाणों से होतेहोते कहीं विश्राम प्राप्त नहीं होगा)। यदि दूसरे प्रमाणों से प्रकृत प्रमाण की सिद्धि होना नहीं मानोगे तो प्रमाणों का अन्वेषण करना व्यर्थ होगा। तथा आदि में होने वाले प्रमाण से यदि दूसरे प्रमाण की सिद्धि होना माना जायेगा, और उस दूसरे प्रमाण से प्रथम होने वाले प्रमाण की सिद्धि मानी जायेगी तो अन्योन्याश्रय दोष आता है॥१३५-१३६॥