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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 82 स्वतः प्रमाणता यस्य तस्यैव परतः कथम् / तदैवैकत्र नैवातः स्याद्वादोस्ति विरोधतः॥१२८॥ नैतत्साधु प्रमाणस्यानेकरूपत्वनिश्चयात् / प्रमेयस्य च निर्भागतत्त्ववादस्तु बाध्यते // 129 // तत्र यत्परतो ज्ञानमनभ्यासे प्रमाणताम् / याति स्वतः स्वरूपे तत्तामिति क्वैकरूपता // 130 // स्वार्थयोरपि यस्य स्यादनभ्यासात्प्रमाणता। प्रतिक्षणविवर्तादौ तस्यापि परतो न किम् // 131 // स्याद्वादो न विरुद्धोतः स्यात्प्रमाणप्रमेययोः / स्वद्रव्यादिवशाद्वापि तस्य सर्वत्र निश्चयः // 132 // केवलज्ञानमपि स्वद्रव्यादिवशात्प्रमाणं न परद्रव्यादिवशादिति सर्वं कथंचित्प्रमाणं, तथा तदेव स्वात्मनः स्वतः प्रमाणं छद्मस्थानां तु परत इति सर्वं स्यात् स्वतः. स्यात्परतः. प्रमाणमपगम्यते विरोधाभावात। न पुनर्यत्स्वतः तत्स्वत एव यत्परतस्तत्परत एवेति सर्वथैकांतप्रसक्तेरुभयपक्षप्रक्षिप्तदोषानुषंगात्॥ . जिस ज्ञान को स्वांश में स्वतः प्रमाणपना है, उसी ज्ञान को अनभ्यास दशा में परतः प्रमाणपना कैसे होगा? एक स्थान पर एक ही समय में दो विरुद्ध धर्म नहीं ठहर सकते हैं अतः विरोध हो जाने से स्याद्वाद मत ठीक नहीं है यह कहना प्रशस्त नहीं है, क्योंकि प्रमाणज्ञान का अनेक स्वरूपों से सहितपने का निश्चय होता है, तथा प्रमाण से जानने योग्य प्रमेय पदार्थ भी अनेक स्वरूपों को लिये हुए हैं। जो (बौद्ध)प्रमाण और प्रमेयों को अंशों से रहित मानते हैं, उनका तत्त्वों के स्वरूपरहित मानने का पक्ष बाधित हो जाता है।(अर्थात् जिस पदार्थ में निःस्वरूपत्व या अनेक धर्मों से रहितपना है वह किसी भी प्रमाण से जाना नहीं जाता है)॥१२८-१२९।। उन ज्ञानों में जो ज्ञान अनभ्यास दशा में दूसरे ज्ञापक हेतुओं से प्रमाणपन को प्राप्त होता है, वह ज्ञानस्वरूप अंश में स्वत: ही उस प्रमाणपन को प्राप्त कर लेता है अत: एकरूपपना ज्ञान में कहाँ रह सकता है ? // 130 // भावार्थ : ज्ञान में अनेक स्वभाव विद्यमान हैं। प्रमेय के भी अनेक स्वभाव हैं। अत: अनभ्यासदशा में ज्ञान के विषय अंश में परतः प्रामाण्य जाना जाता है, किन्तु ज्ञान अंश में वह स्वतः प्रमाणरूप है। जिसके यहाँ अनभ्यास दशा होने से स्व और अर्थ में भी प्रमाणपना परत: माना जाता है, उसके यहाँ भी प्रतिक्षण नवीन-नवीन पर्याय आदि में दूसरों से प्रमाणपना क्यों नहीं माना जावेगा? इसलिए प्रमाणतत्त्व और प्रमेय तत्त्वों में कथंचित् अनेक स्वरूपों को कहने वाला स्याद्वाद सिद्धान्त विरुद्ध नहीं हो सकता अथवा स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अधीनता से अस्तिपना और परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नास्तिपना भी स्याद्वाद मन में सभी स्थलों पर निश्चित है॥ 131-132 // केवलज्ञान भी अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा प्रमाण है। दूसरे जड़ या मतिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अधीनता से प्रमाण नहीं है। इस प्रकार सभी सम्यग्ज्ञान कथंचित् प्रमाण हैं, और किसी अपेक्षा से प्रमाण नहीं भी हैं तथा वह केवलज्ञान ही स्वकीय आत्मा को स्वत: प्रमाणरूप है और क्षायोपशमिक ज्ञानी छद्मस्थों को अन्य कारणों से प्रमाणरूप जानने योग्य है। इस कारण सभी ज्ञान- कथंचित् स्वत: प्रमाणरूप हैं और कथंचित् परत: प्रमाणरूप स्वीकार किये जाते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं आता है फिर
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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