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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 81 प्रमाणत्वे निश्चयजननादेव तदुपगतं स्यादिति पक्षांतरं पाटवमेतेनैव निरूपितं / अविद्यावासनाप्रहाणादात्मलाभोनुभवस्य पाटवं न तु पौन:पुन्येनानुभवो विकल्पोत्पत्तिर्वा, यतोभ्यासेनैवास्य व्याख्येति चेत् कथमेवमप्रहाणाविद्यावासनानां जनानामनुभवात्क्वचित्प्रवर्तनं सिद्ध्येत् , तस्य पाटवाभावात् प्रमाणत्वायोगात् / प्राणिमात्रस्याविद्यावासनाप्रहाणादन्यत्र क्षणक्षयाद्यनुभवादिति दोषापाकरणे कथमेकस्यानुभवस्य पाटवापाटवे परस्परविरुद्ध वास्तवेन स्यातां। तयोरन्यतरस्याप्यवास्तवत्वे क्वचिदेव प्रमाणत्वाप्रमाणत्वयोरेकत्रानुभवेनुपपत्तेः। प्रकरणाप्रकरणयोरनुत्पत्तिरनेनोक्ता। अर्थित्वानर्थित्वे पुनरर्थज्ञानात्प्रमाणात्मकादुत्तरकालभाविनी कथमर्थानुभवस्य प्रामाण्येतरहेतुतां प्रतिपद्येते स्वमतविरोधात्। ततः स्वार्थव्यवसायात्मकज्ञानाभिधायिनामेवाभ्यासे स्वतोऽनभ्यासे परतः प्रामाण्यसिद्धिः॥ अन्योन्याश्रय दोष पहिले कहे जा चुके हैं। इस कथन से अनुभव की दक्षता का दूसरा पक्ष भी निरूपण कर दिया गया समझ लेना चाहिए। - बौद्ध कहते हैं कि अनादिकालीन अविद्यारूप वासना के नाश हो जाने से अनुभव का आत्मलाभ होना ही पटुता है। पुनः-पुनः अनुभव होना अथवा बहुत बार विकल्पज्ञानों की उत्पत्ति होना पटुता नहीं है जिससे कि अभ्यास से ही इस पटुत्व की व्याख्या हो सके। इस प्रकार बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार से अविद्या का सर्वथा नाशकर सम्यग्ज्ञान को धारने वाले जीवों की विषयों में प्रवृत्ति चाहे हो जाए, किन्तु जिन मनुष्यों की अविद्यावासना नष्ट नहीं हुई है, उन जीवों की किसी विषय में अनुभव ज्ञान से प्रवृत्ति होना कैसे सिद्ध होगा? क्योंकि आपकी मानी हुई इस पटुता के न होने के कारण उनके उस अनुभव में प्रमाणपना प्राप्त नहीं हो सकता है। यदि बौद्ध इस दोष का निवारण यों करें कि सम्पूर्ण प्राणियों की अविद्यावासना के नाश हुए बिना भी क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति आदि का अनुभव हो जाता है तब तो एक अनुभव के स्वलक्षण विषय में पाटव और क्षणिकत्व विषय में अपाटवत्व ये परस्पर विरुद्ध धर्म वास्तविक कैसे होंगे? उन दोनों पाटव अपाटवों में से किसी एक को भी वस्तुभूत नहीं माना जायेगा तो एक अनुभव में किसी विषय की अपेक्षा प्रमाणपन और किसी दूसरे विषय की अपेक्षा अप्रमाणपन की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अर्थात् जब वस्तुभूत किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है तो कौन प्रामाणिक और कौन अप्रामाणिक ऐसा कैसे जाना जा सकता है। ... इस कथन से प्रकरण और अप्रकरण की उपपत्ति न हो सकना भी कह दिया गया है, तथा ज्ञेय विषय का अर्थीपन और क्षणिक विषय का अनभिलाषुकपन तो प्रमाणरूप अर्थज्ञान से उत्तरकाल में होने वाले हैं। वे अर्थ के अनुभव की प्रमाणता और अप्रमाणता के हेतुपन को कैसे प्राप्त हो सकेंगे? अर्थात् अन्योन्याश्रय दोष आता है। अर्थीपन या अनर्थीपन से अर्थज्ञान में प्रमाणता या अप्रमाणता होवे और ज्ञान में प्रमाणता और अंप्रमाणता के हो जाने पर अभिलाषा होवे तो बौद्धों को अपने मत से विरोध आता है अत: स्व और .अर्थ को निश्चय करना स्वरूप ज्ञान को कहने वाले स्याद्वादियों के यहाँ अभ्यास दशा में ज्ञान की प्रमाणता स्वतः जानने और अनभ्यास दशा में ज्ञान की प्रमाणता परत: जानने की सिद्धि होती है। एकान्तवादी नैयायिक बौद्ध आदि के यहाँ अनेक दोष आते हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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