________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 67 बाधकोदयतः पूर्वं वर्तते स्वार्थनिश्चयः। तस्योदये तु बाध्येतेत्येतदप्यविचारितम् // 8 // अप्रमाणादपि ज्ञानात्प्रवृत्तेरनुषंगतः। बाधकोद्भूतितः पूर्वं प्रमाणं विफलं ततः॥८॥ बाधकाभावविज्ञानात्प्रमाणत्वस्य निश्चये। प्रवृत्त्यंगे तदेव स्यात्प्रतिपत्तुः प्रवर्तकम् // 83 // तस्यापि च प्रमाणत्वं बाधकाभाववेदनात्। परस्मादित्यवस्थानं क्व नामैवं लभेमहि // 8 // बाधकाभावबोधस्य स्वार्थनिर्णीतिरेव चेत् / बाधकांतरशून्यत्वनिर्णीतिः प्रथमेत्र सा // 85 / / संप्रत्ययो यथा यत्र तथा तत्रास्त्वितीरणे। बाधकामावविज्ञानपरित्यागः समागतः // 86 // यच्चार्थवेदने बाधाभावज्ञानं तदेव नः। स्यादर्थसाधनं बाधसद्भावज्ञानमन्यथा // 87 // बाधारहितपना लगाना मुग्धमानव का कथन है। बाधक प्रमाण के उदय से पहले स्व और अर्थ का निश्चय है पीछे उस बाधक का उदय होने पर स्वार्थनिश्चय बाधित हो जाता है यह कहना भी अविचारित है। इस प्रकार तो अप्रमाणज्ञान से भी प्रवृत्ति होने का प्रसंग आता है, क्योंकि, प्रवृत्ति हो चुकने पर बाधक के उदय होने से पहिला ज्ञान बाध्य होगा अतः बाधक के उत्पन्न होने से पहिले प्रमाण विफल हो जाता है॥८०८१-८२॥ अर्थात् पदार्थों का निर्णय करके भी जो ज्ञान अनुमान आदि के द्वारा बाधित हो जाता है वा उसका प्रत्यक्षादि ज्ञान के द्वारा खण्डन हो जाता है वह ज्ञान अप्रमाण ही है उसको प्रमाणित स्वीकार करना निष्फल - यदि मीमांसक कहे कि बाधकाभाव के विज्ञान से प्रमाणपन का निश्चय करने को प्रवृत्ति का अंग माना है, तब तो हम स्याद्वादी कह सकते हैं कि वह बाधकाभाव का ज्ञान ही प्रतिपत्ता का प्रवर्तक है। अथवा उस बाधकाभाव के विज्ञान का प्रमाणपना दूसरे बाधकाभाव ज्ञान से निश्चित होगा और दूसरे का प्रमाणपना तीसरे बाधकाभाव ज्ञान से ज्ञात होगा। इस प्रकार हम कहाँ अवस्थिति को प्राप्त कर सकेंगे? अर्थात् कहीं * भी अवस्थिति नहीं होने से अनवस्था दोष हो जाएगा // 83-84 // . यदि मीमांसक कहें कि बाधकाभाव ज्ञान का स्वार्थ निर्णय करना ही अन्य बाधकों की शून्यता का निर्णय करना है, अत: तीसरे चौथे आदि बाधकाभावों के ज्ञानों की आकांक्षा नहीं होगी और अनवस्था दोष भी नहीं होगा। इसका समाधान करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि पहिले ज्ञान में भी स्वतंत्र बाधकाभाव ज्ञान क्यों माना जाता है (प्रथम ज्ञान द्वारा स्व और अर्थ का निर्णय करना ही बाधकाभावों का निर्णय करना है अतः प्रमाण के लक्षण में बाधकाभाव विशेषण का लगाना व्यर्थ है)?॥८५॥ . जिस प्रकार जहाँ वास्तविक निर्णय हो जाता है, वहाँ वैसी व्यवस्था कर ली जाती है। इस प्रकार कहने पर तो बाधकाभाव के विज्ञान का परित्याग हो जाता है (यानी स्व और अर्थ का निर्णय हो जाना ही बाधकाभाव है। जहाँ स्वार्थ का निश्चय है, वहाँ कोई भी बाधक फटकने नहीं पाता है)॥८६॥ जैसे अर्थ को जानने में मीमांसकों ने बाधकों के अभाव को ज्ञान माना है, वहीं हम स्याद्वादियों के यहाँ स्व अर्थ को साधने वाला ज्ञान माना गया है। और दूसरे प्रकार का (यानी स्वार्थ को नहीं साधने वाला) ज्ञान तो बाधकों के सद्भाव का ज्ञान है / / 87 / / अर्थात् स्वार्थ का निर्णय नहीं करने वाला ज्ञान बाधा