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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 68 तत्र देशांतरादीनि वापेक्ष्य यदि जायते / तदा सुनिश्चितं बाधाभावज्ञानं न चान्यथा // 48 // अदुष्टकारणारब्धमित्येतच्च विशेषणम्। प्रमाणस्य न साफल्यं प्रयात्यव्यभिचारतः // 89 // दुष्टकारणजन्यस्य स्वार्थनिर्णीत्यसंभवात् / सर्वस्य वेदनस्योत्थं तत एवानुमानतः // 10 // स्वार्थनिश्चायकत्वेनादुष्टकारणजन्यता। तथा च तत्त्वमित्येतत्परस्परसमाश्रितम् // 11 // यदि कारणदोषस्याभावज्ञानं च गम्यते / ज्ञानस्यादुष्टहेतूत्था तदा स्यादनवस्थितिः॥१२॥ हेतुदोषविहीनत्वज्ञानस्यापि प्रमाणता। स्वहेतुदोषशून्यत्वज्ञानात्तस्यापि सा ततः // 93 // गत्वा सुदूरमेकस्य तदभावेपि मानता। यदीष्टा तद्वदेव स्यादाद्यज्ञानस्य सा न किम् // 14 // एवं न बाधवर्जितत्वमदुष्टकारणारब्धत्वं लोकसंमतत्वं वा प्रमाणस्य विशेषणं सफलपूर्वार्थवत्। स्वार्थव्यवसायात्मकत्वमात्रेण सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्वात्मना प्रमाणत्वस्य वा व्यवस्थितेरपि परीक्षकैः प्रतिपत्तव्यम्॥ वर्जित नहीं है। इस प्रकरण में देशान्तर, कालान्तर आदि की अपेक्षा से यदि वह ज्ञान उत्पन्न होता है, तब तो बाधकों के अभाव का ज्ञान निश्चित हो सकता है, अन्यथा निश्चित नहीं है। सभी देश और सभी कालों में बाधकों के नहीं होने का यदि निर्णय हो जाता है तो बाधकाभाव ज्ञान प्रमाणता का हेतु हो सकता है केवल कभी, कहीं और किसी एक व्यक्ति को बाधकों का अभाव तो मिथ्याज्ञानों के होने पर भी हो सकता है परन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता // 88 // प्रमाण के सामान्य लक्षण में दिया गया निर्दोष कारणों से जन्यपना यह प्रमाण का विशेषण भी व्यभिचार रहितपने से सफलता को प्राप्त नहीं हो सकता है तथा जो ज्ञान दुष्ट कारणों से जन्य है, उसके द्वारा स्व और अर्थ का निर्णय होना ही असम्भव है अतः प्रमाण का लक्षण स्वार्थ निश्चय ही पर्याप्त है तथा अनुमान से भी इस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञानों की निर्दोष कारणों से उत्पत्ति होने का निर्णय होना असम्भव है क्योंकि उस अनुमान की भी निर्दोष कारणों से उत्पत्ति को जानना कठिन है। व्याप्तिज्ञान की निर्दोषता का परिज्ञान उससे भी कठिन है। ___ यदि स्व और अर्थ का निश्चय कारकपन से ज्ञान की निर्दोष कारणों से उत्पन्नता जानी जाएगी और निर्दोष कारणों से उत्पत्ति होने का कारण वह स्वार्थनिश्चायकपना माना जाए तो इसमें अन्योन्याश्रय दोष आता है॥८९-९१।। यदि कारण दोष के अभाव का ज्ञान अदुष्ट हेतु के उत्पन्न ज्ञान से होता है तो अनवस्था दोष आता है।९२॥ हेतु दोष विहीनत्व ज्ञान की प्रमाणता अपने हेतु के दोष शून्यत्व ज्ञान से होती है तथा उसकी प्रमाणता दूसरे ज्ञान से होती है।९३॥ बहुत दूर भी जाकर अनवस्था के निवारणार्थ यदि किसी एक ज्ञान को उस निर्दोष कारणों से जन्यपने का ज्ञान न होते हुए भी प्रमाणपना इष्ट कर लोगे तो उस दूरवर्ती ज्ञान के समान ही सबसे पहिले हुए ज्ञान को भी निर्दोष कारणों से जन्यपन के ज्ञान बिना ही वह प्रमाणता क्यों नहीं है? // 94 // इसलिए प्रमाण के स्वरूप में अदुष्ट कारणों से आरब्धत्व वह विशेषण अव्यभिचारी नहीं है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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