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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 65 स्मर्यमाणेनुभूयमाने वा ततो न ग्रहीतग्राहिणी चेत् तत् नेन्द्रियजत्वात्तस्याः कथमन्यथा प्रत्यक्षेतर्भावः। न चेंद्रियं पूर्वोत्तरावस्थयोरतीतवर्तमानयोः वर्तमाने तदेकत्वे प्रवर्तितुं समर्थं वर्तमानार्थग्राहित्वात् संबंधं वर्तमान च गृह्यते चक्षुरादिभिरिति वचनात्॥ पूर्वोत्तरविवर्ताक्षज्ञानाभ्यां सोपजन्यते। तन्मात्रमितिचेत्क्वेयं तद्भिन्नैकत्ववेदिनी // 76 // न हि पूर्वोत्तरावस्थाभ्यां भिन्ने च सर्वथैकत्वे तत्परिच्छेदिभ्यामक्षज्ञानाभ्यां जन्यमानं प्रत्यभिज्ञानं प्रवर्तते स्मरणवत् संतानांतरैकत्ववद्वा॥ विवर्ताभ्यामभेदश्चेदेकत्वस्य कथंचन / तद्ग्राहिण्याः कथं न स्यात्पूर्वार्थत्वं स्मृतेरिव // 77 // यद्यवस्थाभ्यामेकत्वस्य कथंचिदभेदात्तद्ग्राहींद्रियज्ञानाभ्यां जनिताया: प्रत्यभिज्ञाया ग्रहणं न विरुध्यते प्रत्यभिज्ञान प्रवृत्ति नहीं करता है अत: वह प्रत्यभिज्ञान गृहीत विषय को ग्रहण करने वाला नहीं है। ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यभिज्ञान इन्द्रियजन्य है। अन्यथा (प्रत्यभिज्ञान को इन्द्रियों से जन्य नहीं माना जायेगा तो) प्रत्यक्ष में उसका अन्तर्भाव कैसे किया जा सकेगा? इन्द्रियाँ तो व्यतीत पूर्व अवस्था और वर्तमान में स्थित उत्तर अवस्था में वर्तमान एकत्व में प्रवृत्ति करने के लिए समर्थ नहीं है क्योंकि इन्द्रियों का स्वभाव वर्तमान काल के अर्थ को ग्रहण करने का है। तुम्हारे ग्रन्थों में ऐसा कथन है कि सम्बद्व हुए और वर्तमान काल के स्थित अर्थों को चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है (ऐसी दशा में एकत्व को जानने वाला प्रत्यभिज्ञानइन्द्रियों से कैसे उत्पन्न हो सकेगा?)। .. पूर्व के विवर्त पर्यायों को जानने वाला इन्द्रियजन्य ज्ञान और उत्तर अवस्था को जानने वाला इन्द्रियजन्य ज्ञान इन दो ज्ञानों से वह प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है और केवल उस एकत्व को विषय करता है, तब वह प्रत्यभिज्ञा उन दोनों विवर्तों से (पर्यायों से) भिन्न एकत्व को जानने वाला कहाँ हुआ? (दो विवर्ती से एकत्व को अभिन्न मानने पर तो प्रत्यभिज्ञान गृहीतग्राही हो जायेगा)॥७६॥ पूर्व और उत्तर अवस्था से सर्वथा भिन्न एकत्व में उन दोनों अवस्थाओं को जानने वाले दो इन्द्रिय ज्ञान से उत्पन्न हुआ प्रत्यभिज्ञान प्रवृत्ति नहीं करता है जैसे कि स्मरणज्ञान अनुभूत से सर्वथा भिन्न अर्थ में प्रवृत्त नहीं करता है। अथवा सन्तानों का एकपना बाल्य अवस्था, कुमार अवस्थाओं में रहने वाले एकत्व से सर्वथा भिन्न है। उसमें एकपन को जानने वाला प्रत्यभिज्ञान जैसे प्रवृत्ति नहीं करता है। ___पूर्व और उत्तर दोनों पर्यायों से एकत्व का कथंचित् अभेद माना जायेगा तो उस एकत्व को ग्रहण करने वाला प्रत्यभिज्ञान स्मृति के समान पूर्वगृहीत अर्थ का ग्राहीपना क्यों नहीं होगा? अर्थात् स्मृति जैसे पूर्व अर्थ को ग्रहण करती है, वैसे ही पूर्व, उत्तर की पर्यायों से अभिन्न एकत्व को जानने वाला प्रत्यभिज्ञान भी पूर्व अर्थ का ग्राही है, सर्वथा अपूर्व अर्थ का नहीं // 77 / / - यदि दो अवस्थाओं से एकत्व का कथंचित् अभेद होने के कारण उन पूर्व अपर अवस्थाओं के ग्रहण करने वाले दो इन्द्रियजन्य ज्ञानों से उत्पन्न हुई प्रत्यभिज्ञा का ग्रहण करना विरुद्ध नहीं होता है अपितु
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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