________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 64 प्रत्यभिज्ञानान्नित्यशब्दादिसिद्धावपि कुतश्चित्समारोपस्य प्रसूतेस्तद्व्यवच्छेदार्थमनुमानं न पूर्वार्थमिति मतं तदा स्मृतितर्कादेरपि पूर्वार्थत्वं मा भूत् तत एव / तथा च स्वाभिमतप्रमाणसंख्याव्याघात:। कथं वा प्रत्यभिज्ञानं गृहीतग्राहि प्रमाणमिष्टं तद्धि प्रत्यक्षमेव वा ततोऽन्यदेव वा प्रमाणं स्यात्॥ प्रत्यक्षं प्रत्यभिज्ञा चेद्ग्रहीतग्रहणं भवेत्। ततोन्यच्चेत्तथाप्येवं प्रमाणांतरता च ते // 74 // न ह्यननुभूतार्थे प्रत्यभिज्ञा सर्वथातिप्रसंगात्। नाप्यस्मर्यमाणे यतो ग्रहीतग्राहिणी न भवेत्॥ . प्रत्यक्षेणाग्रहीतेर्थे प्रत्यभिज्ञा प्रवर्तते। पूर्वोत्तरविवर्तकग्राहाच्चेन्नाक्षजत्वतः // 75 // पूर्वोत्तरावस्थयोर्यद्व्यापकमेकत्वं तत्र प्रत्यभिज्ञा प्रवर्तते न प्रत्यक्षेण परिच्छिन्नेवस्थामात्रे पदार्थ समारोप हो जाने से अपूर्वार्थ के सदृश है। इस प्रकार यदि मीमांसकों का मन्तव्य है तब तो स्मृति, व्याप्तिज्ञान, स्वार्थानुमान आदि के द्वारा भी पूर्वगृहीत अर्थ का ग्राहकपना नहीं हो सकता क्योंकि स्मृति आदिक भी तो अस्मरण आदि समारोप को दूर करने के लिए अवतीर्ण होते हैं। तथा इससे (स्मृति आदि को प्रमाण मान लेने पर) मीमांसकों के द्वारा पाँच या छह प्रमाणों की संख्या का व्याघात हो जाता है (अर्थात्-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणों में अन्तर्भाव नहीं हों सकने के कारण स्मृति, व्याप्तिज्ञान आदि को भिन्न प्रमाण मानने पर प्रमाणों की अभीष्ट संख्या का व्याघात हो जाता है), तथा मीमांसकों के गृहीत का ग्रहण करने वाला प्रत्यभिज्ञान प्रमाण कैसे हो सकता है? वा मीमांसकों के द्वारा माने गये पाँच या छह प्रमाणों में से वह प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण रूप होगा अथवा उस प्रत्यक्ष से भिन्न ही कोई दूसरा प्रमाण होगा? ___ यदि प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्षप्रमाण माना जायेगा तो वह गृहीत का ग्राही ही होगा। यदि उस प्रत्यक्ष से अन्यज्ञान को प्रत्यभिज्ञान मानोगे तो भी तुम्हारे मत में इष्ट प्रमाणों से अतिरिक्त अन्य प्रमाण को मानने का प्रसंग आयेगा॥७४॥ पूर्व में ह्यननुभूत अर्थ में तो प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है क्योंकि सर्वथा ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् नवीन पदार्थों को देखकर सदा प्रत्यभिज्ञान होता रहेगा, तथा स्मरण नहीं किये भावार्थ : अनुभव और स्मरण से जान लिये गये अर्थ में प्रत्यभिज्ञान की प्रवृत्ति होती है। अत: वह गृहीतग्राही ही है। पूर्वपर्याय और उत्तरपर्याय में रहने वाले एकपन का ग्रहण प्रत्यभिज्ञान करता है (उस एकपन का ग्रहण प्रत्यक्ष और स्मरण नहीं कर सकता है।) अत: प्रत्यक्ष से अगृहीत अर्थ में प्रत्यभिज्ञा प्रवर्त्त होती है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि, उनके मत में प्रत्यभिज्ञान को इन्द्रियों से उत्पन्न माना गया है (जो इन्द्रियों के साथ अन्वयव्यतिरेक रखता है, वह इन्द्रियजन्य ही होता है किन्तु इन्द्रियों की उस एकत्व में प्रवृत्ति नहीं है)॥७५॥ पूर्व अवस्था और उत्तर अवस्था में जो व्यापक एकत्व है, उस एकत्व में प्रत्यभिज्ञान प्रवर्त होता है किन्तु प्रत्यक्ष से ज्ञात, अनुभव में, आगत वर्तमान अवस्था में अथवा स्मृति में आगत पूर्व अवस्था में