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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *63 नं प्रत्यभिज्ञाननिर्णीतेषु नित्येषु शब्दात्मादिष्वर्थेष्वनुमानादिसंविदः प्रवर्तते पिष्टपेषणवद्वैयर्थ्यादनवस्थाप्रसंगाच्च। ततो न गृहीतग्रहणमित्ययुक्तं, दर्शनस्य परार्थत्वादित्यादि शब्दानित्यत्वसाधनस्याभ्युपगमात्। तत एव तत्साधनं न पुनः प्रत्यभिज्ञानादित्यसारं, नित्यः शब्दः प्रत्यभिज्ञायमानत्वादित्यत्र हेत्वसिद्धिप्रसंगात्। प्रत्यभिज्ञायमानत्वं हि हेतुः तदा सिद्धः स्याद्यदा सर्वेषु प्रत्यभिज्ञानं प्रवर्तेत तच्च प्रवर्तमानं शब्दनित्यत्वे प्रवर्तते न शब्दरूपमात्रे प्रत्यक्षत्ववदनेकांतार्थप्रसंगात्। यदि पुनः से रहित और निश्चयात्मक विज्ञान होना प्रमाण है, उसे भी इस कथन से निराकृत कर दिया गया समझ लेना चाहिए (अर्थात्-बौद्धों के अज्ञात अर्थ को प्रकाश करने वाले प्रमाण के समान मीमांसकों का सर्वथा अपूर्व अर्थ को जानने वाला ज्ञान प्रमाण है, यह सिद्धान्त भी अनुमान को प्रमाणपना न बन सकने के कारण खण्डनीय है)। अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, तर्क आदि संवित्तियों को गृहीत का ग्रहण करनापने की अपेक्षा अभेद होने से यह वही शब्द है यह वही आत्मा है। इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान द्वारा निर्णीत किये गये शब्द, आत्मा आदि नित्य वस्तुओं में अनुमान आदि की प्रवृत्ति होती है (अतः कथंचित् गृहीतग्राही को भी प्रमाण मानने में कोई क्षति नहीं है)।७२-७३॥ प्रत्यभिज्ञान से निश्चित किये गये शब्द, आत्मा आदि नित्य अर्थों में अनुमान आदि ज्ञान प्रवृत्ति नहीं करते हैं क्योंकि पिसे हुए को पीसने के समान जाने हुए को जानना व्यर्थ है। तथा जाने हुए को जानना और . फिर जाने हुए को तीसरी बार जानना इत्यादि अनवस्था दोष का भी प्रसंग आता है अत: अनुमान आदि संवित्तियों को गृहीत का ग्राहकपना नहीं है। उस प्रकार कहना भी अयुक्त है क्योंकि स्वयं मीमांसकों ने दर्शन यानी शब्द को परार्थ माना है। “दर्शनस्य परार्थत्वात्" इत्यादि ग्रन्थ में शब्द के नित्यपन की सिद्धि होना भी स्वीकार किया है। उस अनुमान से ही शब्द की नित्यता सिद्ध हो जाती है तो फिर प्रत्यभिज्ञान से शब्द की नित्यता को सिद्ध नहीं करेंगे। अर्थात् किसी शब्द में प्रत्यभिज्ञान से और अन्य शब्द में अनुमान से नित्यता सिद्ध हो जाती है। एक ही शब्द में दो प्रमाणों से नित्यता को साधने का व्यर्थ परिश्रम नहीं करना चाहिए। इस प्रकार मीमांसकों का कहना भी निःसार है क्योंकि इसमें शब्द नित्य है, प्रत्यभिज्ञान का विषय होने से इस अनुमान में दिये गये हेतु की असिद्धि का प्रसंग आता है। प्रत्यभिज्ञायमान हेतु तब सिद्ध हो सकेगा जब सम्पूर्ण शब्दों में प्रत्यभिज्ञान प्रवृत्ति करेगा तथा सर्व शब्दों में प्रवर्तता हुआ शब्द के नित्यपने में प्रवृत्ति करेगा। केवल शब्द के स्वरूप में प्रत्यक्षपन के समान यदि प्रत्यभिज्ञान का विषयपना रहता है तब तो अनेक धर्म वाले अर्थ की सिद्धि का प्रसंग आता है। (अर्थात् प्रत्यभिज्ञान से जान लिये गये नित्यत्व को अनुमान द्वारा जाना है, अत: सर्वथा अपूर्व अर्थ का विज्ञान करना यह प्रमाण का निर्दोष लक्षण नहीं बन सकता है। इसमें अव्याप्ति दोष आता है)। - मीमांसक कहे कि यद्यपि प्रत्यभिज्ञान से शब्द, आत्मा आदि के नित्यत्व की सिद्धि हो जाती है, किन्तु फिर भी किसी कारण से अज्ञान, संशय आदि समारोप की उत्पत्ति हो जाती है, अत: उस समारोप के निवारणार्थ प्रवृत्त हुआ अनुमान प्रमाण अपूर्वार्थ ही है, पूवार्थग्राही नहीं है। अर्थात् जान लिया गया भी
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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