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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 62 संवादलक्षणमविमोक्षाभावादित्युक्तं प्राक् / प्रत्यक्षानुमानयोर्वा विमोक्षस्यासंभवादव्याप्त्या वासंभवेन च तल्लक्षणं दूष्यत एव, ततोतिव्याप्त्यव्याप्त्यसंभवदोषोपद्रुतं न युक्तिमल्लक्षणमविसंवादनम्॥ अज्ञातार्थप्रकाशश्शेल्लक्षणं परमार्थतः। गृहीतग्रहणान्न स्यादनुमानस्य मानता // 68 // प्रत्यक्षेण गृहीतेपि क्षणिकत्वादिवस्तुनि। समारोपव्यवच्छेदात्प्रामाण्यं लैंगिकस्य चेत् // 69 // स्मृत्यादिवेदनस्यातः प्रमाणत्वमपीष्यताम्। मानद्वैविध्यविध्वंसनिबंधनमबाधितम् // 70 // मुख्यं प्रामाण्यमध्यक्षेऽनुमाने व्यावहारिकम् / इति ब्रुवन्न बौद्धः स्यात् प्रमाणे लक्षणद्वयम् // 71 // चार्वाकोपि ह्येवं प्रमाणद्वयमिच्छत्येव प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणमगौणत्वात् प्रमाणस्येति वचनादनुमानस्य गौणप्रामाण्यानिराकरणात्॥ तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम्। प्रमाणमिति योप्याह सोप्येतेन निराकृतः // 72 // गृहीतग्रहणाभेदादनुमानादि संविदः / प्रत्यभिज्ञाननिर्णीतनित्यशब्दादिवस्तुषु // 73 // इसको हम पहले कह चुके हैं। अथवा प्रत्यक्ष और अनुमान में से एक में या दोनों में अविमोक्षरूप अविसंवाद के असम्भव होने से अव्याप्ति और असम्भव दोष द्वारा वह प्रमाण का लक्षण अविसंवाद दूषित हो ही जाता है अतः बौद्धों के यहाँ प्रमाण का लक्षण अतिव्याप्ति, अव्याप्ति और असम्भव दोषों से युक्त होने से अविसंवादस्वरूप लक्षण युक्तिसहित नहीं है। “अज्ञातार्थ (अपूर्व अर्थ) का प्रकाश करना यदि परमार्थ रूप से प्रमाण का लक्षण माना जाएगा तो अनुमान को प्रमाणपना नहीं प्राप्त होगा (क्योंकि वस्तुभूत जिस क्षणिकत्व को निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ने जान लिया था उसी ग्रहण किये हुए अर्थ का अनुमान द्वारा ग्रहण हुआ है अतः अनुमान ज्ञान के भी प्रमाणता नहीं हो सकती) यदि कहो कि क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापण शक्ति आदि वस्तुभूत पदार्थों का प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ग्रहण हो जाने पर भी किसी कारणवश उत्पन्न संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानरूप समारोप के निराकरण करने वाला होने से अनुमान ज्ञान को प्रमाणपना है। तब तो स्मृति, व्याप्तिज्ञान आदि को भी समारोप का व्यवच्छेदक होने से प्रमाणपना स्वीकार करना चाहिए जो कि तुम बौद्धों द्वारा माने हुए प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणों की द्विविधपन के विनाश का कारण है। प्रत्यक्ष में प्रमाणपना मुख्यरूप से घटता है और अनुमान में प्रमाणपना केवल व्यवहार को साधने के लिए मान लिया गया है। इस प्रकार प्रमाण में दो लक्षणों को कहने वाला बौद्ध तो बुद्ध नहीं है (अर्थात् ज्ञानी नहीं है)॥६८-७१।। चार्वाक, मीमांसक आदि अन्य मत का खण्डन : इस प्रकार चार्वाक भी दो प्रमाणों को ही मानता है। चार्वाक का कहना है कि प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रमाण अगौण (प्रधान) होता है। प्रत्यक्ष की सहायता से होने वाले अनुमान प्रमाण गौण है। इस कथन से चार्वाक ने अनुमान के गौण प्रमाणपन का निराकरण नहीं किया है। अर्थात् मुख्य रूप से तो प्रत्यक्ष ही प्रमाण है; परन्तु गौण रूप से अनुमान को भी प्रमाण माना है। जो कहता है कि पहले निश्चित नहीं किये हुए अपूर्व अर्थ का बाधाओं
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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