________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 61 युक्त्या यन्न घटामेति दृष्ट्वापि श्रद्दधे न तत्। इति ब्रुवन् प्रमाणत्वं युक्त्या श्रद्धातुमर्हति // 64 // __न केवलं व्यवहारी दृष्टं दृष्टमपि तत्त्वं युक्त्या श्रद्धातव्यं / सा च युक्तिः शास्त्रेण व्युत्पाद्यते। ततो शास्त्रप्रणीतिाहतेति ब्रुवन् कस्यचित्प्रमाणत्वं युक्त्यैव श्रद्धातुमर्हति॥ तथासति प्रमाणस्य लक्षणं नावतिष्ठते / परिहर्तुमतिव्याप्तेरशक्यत्वात्कथंचन // 65 // प्रमाणस्य हि लक्षणमविसंवादनं तच्च यथा सौगतैरुपगम्यते तथा युक्त्या न घटत एवातिव्याप्तेर्तुःपरिहरत्वादित्युक्तं स्वप्नादिज्ञानस्य प्रमाणत्वापादनात्॥ क्षणक्षयादिबोधेऽविमुक्त्यभावाच्च दूष्यते। प्रत्यक्षेपि किमव्याप्त्या तदुक्तं नैव लक्षणम् // 66 // क्षणिकेषु विभिन्नेषु परमाणुषु सर्वतः। संभवोप्यविमोक्षस्य न प्रत्यक्षानुमानयोः // 67 // : न हि. वस्तुनः क्षणक्षये सर्वतो व्यावृत्तिर्न स परमाणुस्वभावे वा प्रत्यक्षमपि ____ जो कोई पदार्थ युक्ति (हेतुवाद) से घटना को प्राप्त नहीं होता है, उसको देखकर भी मैं श्रद्धान नहीं करता हूँ। इस प्रकार कहने वाला प्रमाण भी युक्ति से श्रद्धान करने के लिए योग्य होगा। अर्थात् प्रमाण केवल व्यवहार से ही नहीं माना जाता है, अपितु उसे युक्तिसिद्ध भी होना चाहिए // 64 // व्यवहारी मानव को लौकिक जनों के देखे हुए पदार्थ का श्रद्धान नहीं कर लेना चाहिए, किन्तु उसको देखे हुए तत्त्व का भी युक्ति से निश्चय करके श्रद्धान करना चाहिए और वह युक्तिशास्र द्वारा समझी जाती है। अतः शास्त्रों को बनाना व्याघात युक्त नहीं है। इस प्रकार कहने वाला बौद्ध किसी के प्रमाण का भी युक्तियों से ही श्रद्धान करने के लिए योग्य होता है। उसी प्रकार बौद्धों द्वारा माना गया प्रमाण का लक्षण ठीक व्यवस्थित नहीं है, क्योंकि स्वप्न आदि अवस्था के ज्ञानों में लक्षण के चले जाने से अतिव्याप्ति दोष का परिहार कैसे भी नहीं किया जा सकता है। (“अतः अविसंवादिज्ञानं प्रमाणं" -यह लक्षण ठीक नहीं है)॥६५॥ प्रमाण का वह अविसंवादीपना लक्षण जिस प्रकार बौद्धों ने स्वीकार किया, उस प्रकार युक्तियों से घटित नहीं होता है, क्योंकि स्वप्न, भ्रान्त आदि के ज्ञानों को प्रमाणपने का आपादन करने से अतिव्याप्ति दोष का परिहार करना अतीव दुःसाध्य है। इस बात को हम पूर्व में कह चुके हैं। ___ तथा अर्थक्रिया का अभाव नहीं होने से क्षणिकत्व, संगीत आदि के ज्ञान में वह लक्षण नहीं जाता है अत: प्रत्यक्ष में भी लक्षण के न घटने से अव्याप्ति दोष से वह लक्षण दूषित हो जाता है अत: बौद्धों का कहा गया वह लक्षण ठीक नहीं है। तथा प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण के विषयभूत माने गये क्षणिक और विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पड़े हुए परमाणुओं में अविमोक्ष रूप, अर्थक्रियास्थितिका सब ओर से सम्भव नहीं है अतः प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों में लक्षण के नहीं घटने से असम्भव दोष भी है॥६६-६७।। . वस्तु के क्षणिकत्व में सभी ओर से व्यावृत्ति यानी अविचलपना नहीं है अतः अनुमान में लक्षण नहीं जाता है और परमाणुस्वरूप स्वलक्षण में अविसंवाद के न होने से प्रत्यक्ष भी संवादस्वरूप नहीं है