SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 60 व्यवहारेण प्रामाण्यस्योपगमात्तत्रापर्यनुयोज्या एव व्यवहारिणः। किं न भवंतः स्वप्नादिप्रत्ययस्य जाग्रत्प्रत्ययवत् प्रमाणत्वं व्यवहरंति तद्वद्वादो जाग्रबोधस्याप्रमाणत्वमिति केवलं तदनुसारिभिस्तदनुरोधादेव क्वचित्प्रमाणत्वमप्रमाणत्वं चानुमंतव्यमिति ब्रुवाणः कथं शास्त्रं मोहनिवर्तनमाचक्षीत न चेद्व्याक्षिप्तः। ये हि यस्यापर्यनुयोज्यास्तच्छास्त्रेण कथं तेषां मोहनिवर्तनं क्रियते। व्यवहारे मोहवत् क्रियत इति चेत् कुतस्तेषां विनिश्चयः? प्रसिद्धव्यवहारातिक्रमादितिचेत् कोसौ प्रसिद्धो व्यवहारः? सुगतशास्त्रोपदर्शित इति चेत् कपिलादिशास्त्रोपदर्शित: कस्मान्न स्यात्? तत्र व्यवहारिणामननुरोधादिति चेत्, तर्हि यत एव व्यवहारिजनानां सुगतशास्त्रोक्तो व्यवहारः प्रसिद्धात्मा व्यवस्थित एवमतिक्रामतां तत्र मोहनिवर्तनं सिद्धमिति किं शास्त्रेण तदर्थेन तेन / तन्निवर्तनस्यानिष्टौ तु व्याहता शास्त्रप्रणीतिः किं न भवेत्॥ __ व्यवहार से शास्त्र का प्रमाणपना माना गया है। अतः व्यवहार करने वाले लौकिकजन उस प्रमाणव्यवस्था में तर्कणा करने योग्य नहीं हैं कि ज्ञान ही प्रमाण है। इस प्रकार बौद्ध के द्वारा प्रमाण मानने पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसे स्वप्न, मदमत्त आदि के ज्ञानों को जगते हुए जीवों के ज्ञान के समान प्रमाणपने का व्यवहार क्यों नहीं करते हैं? अथवा स्वप्न आदि ज्ञानों को अप्रमाणपने के व्यवहार समान जागती अवस्था के ज्ञान को भी वह अप्रमाणपना क्यों नहीं व्यवहृत होता है? केवल उस व्यवहार के अनुसार चलने वाले लौकिकजनों के द्वारा उस व्यवहार के अनुरोध से ही किसी में प्रमाणपन और किसी में अप्रमाणपन मान लेना चाहिए। इस प्रकार कहने वाला बौद्ध शास्त्रों को मोह की निवृत्ति कराने वाला कैसे कह सकेगा? अथवा मत्त के समान घबड़ाया हुआ क्यों नहीं समझा जाएगा? . अथवा, जो संसारी जीव जिसके विषय में तर्कणा करने योग्य ही नहीं है, उस शास्त्र के द्वारा मोह की निवृत्ति कैसे की जा सकेगी? यदि बौद्ध कहे कि व्यवहार में जैसे मोह कर लिया जाता है, वैसे ही शास्रों द्वारा मोह की निवृत्ति कर ली जाती है। ऐसा कहने पर जैन उनसे पूछते हैं कि उन व्यवहारियों को विशेषरूप से निश्चय कैसे होगा कि हमारा मोह निवृत्त हो गया है? यदि लोक में प्रसिद्ध व्यवहार का अतिक्रमण हो जाने से निश्चय होना माना जाएगा, तो फिर वह प्रसिद्ध व्यवहार कौन है? यदि बुद्ध के शास्त्रों द्वारा दिखलाया गया व्यवहार प्रसिद्ध कहा जाएगा, तब तो कपिल, कणाद, गौतम आदि के शास्त्रों द्वारा दिखलाया गया व्यवहार प्रसिद्ध क्यों नहीं माना जाता है? यदि उन कपिल आदि के शास्त्र द्वारा प्रदर्शित किये गये व्यवहार में व्यवहारी जीवों की अनुकूल वर्तना नहीं है, अत: व्यवहार प्रसिद्ध नहीं है, ऐसा कहोगे तो जैसे व्यवहारी मनुष्यों का सुगत-शास्त्रों में कहा गया व्यवहार प्रसिद्धस्वरूप होकर व्यवस्थित है, उसका भी अतिक्रमण हो जाएगा। और वहाँ तो मोह की निवृत्ति पहले से ही सिद्ध है। ऐसी दशा में उसके लिए बनाये गये उन शास्त्रों द्वारा क्या लाभ हुआ? यदि शास्त्र से उस मोह की निवृत्ति करना इष्ट नहीं है तब तो तुम्हारे यहाँ शास्त्रों का बनाना व्याघातयुक्त क्यों न हो जावेगा? (शास्त्रों को मानकर भी तदनुसार प्रमेय को नहीं मानना व्याघात दोष है)।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy