________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *59 पुनर्जाग्रदशोपलब्धार्थक्रियायाः स्वप्नादाविति युक्तं वक्तुं, सर्वथा विशेषाभावात् / स्वप्नादिषु बाधकप्रत्ययस्य सबाधत्वान्न तदनुभवनं तच्चलनमितिचेत्, कुतस्तस्य सबाधत्वसिद्धिः। कस्यचित्तादृशस्य सबाधकत्वदर्शनादिचेत्, नन्वेवं जागबाधकप्रत्ययस्य कस्यचित्सबाधत्वदर्शनात् सर्वस्य सबाधत्वं सिद्ध्येत् / तस्य निर्बाधस्यापि दर्शनान्नैवमिति चेत्, सत्यस्वप्नजप्रत्ययस्य निर्बाधस्यावलोकनात्सर्वस्य तस्य सबाधत्वं मा भूत्। तस्मादविचारितरमणीयत्वमेवाविचलनमर्थक्रियायाः संवादनमभिप्रायनिवेदनात् क्वचिदभ्युपगंतव्यं / ते च स्वप्नादावपि दृश्यंत इति तत्प्रत्ययस्य प्रामाण्यं दुर्निवारम्॥ प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्रं मोहनिवर्तनम्। ततोपर्यनुयोज्याश्चेत्तत्रैते व्यवहारिणः // 12 // शास्त्रेण क्रियतां तेषां कथं मोहनिवर्तनम् / तदनिष्टौ तु शास्त्राणां प्रतीतिाहता न किम् // 63 // अवस्था में बाधक का अनुभव होना मान लिया जाये और फिर जागृत अवस्था में देखे गये पदार्थ की अर्थक्रिया का चलायमानपना स्वप्न आदि में बाधकज्ञान का अनुभव होना न माना जाये। क्योंकि सभी प्रकार से इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। यदि बौद्ध कहे कि जागृत दशा के बाधक प्रत्यय जो स्वप्न आदि अवस्था में हो रहे हैं, वे स्वयं बाधा सहित हैं अतः स्वप्न अवस्थाओं में उन बाधक ज्ञानों का अनुभव करना जागृत दशा की अर्थक्रिया का चलायमानपना नहीं है तो स्वप्न आदि अवस्थाओं में हुए उन बाधकज्ञानों के स्वयं बाधासहितपने की सिद्धि कैसे होती है? यदि उस प्रकार के किसी एक ज्ञान को बाधकों से सहितपना देखने से स्वप्न के बाधकज्ञानों का बाध्यपना समझा जायेगा, तब तो हम भी अवधारण पूर्वक कहते हैं कि इस प्रकार तो किसीकिसी जागृत दशा के बाधकज्ञानों में बाधक सहितपना देखा जाता है अतः सभी जागृत दशा के ज्ञानों का बाधासहितपना सिद्ध होगा। . यदि कहो कि इस प्रकार जागृत दशाओं के ज्ञान ही बाधाओं से रहित देखे जाते हैं अत: इस प्रकार सबको बाध्य कहना ठीक नहीं है, तो स्वप्न में उत्पन्न हुए सत्यज्ञानों का बाधारहितपना भी देखा जाता है * अत: उन सभी स्वप्नज्ञानों को बाधासहितपना नहीं होगा। अतः अर्थक्रिया का चलायमानपनारूप संवादन नहीं मानना बिना विचार किये ही मनोहर है (विचार करने पर जीर्ण वस्त्र के समान सैकड़ों खण्ड हो जाते हैं)। यह मान लेना चाहिए। तथा आकांक्षानिवृत्ति, परितोष, अर्थक्रियास्थिति, अभिप्राय निवेदन रूप अविसंवाद तो स्वप्न आदि में भी देखे जाते हैं अत: उन स्वप्न आदि के ज्ञानों को भी प्रमाणपना दुर्निवार हो जाएगा। लौकिक व्यवहार से शास्त्रज्ञान में प्रमाणपना है और शास्त्र ही मोह की निवृत्ति करने वाले हैं। अत: उस प्रमाणपने में ये व्यवहारीजन प्रश्नोत्तर करने योग्य नहीं हैं। इस प्रकार बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि जिस किसी शास्र के द्वारा उन व्यवहारियों के मोह की निवृत्ति कैसे की जायेगी? यदि उस मोह की . निवृत्ति को वास्तविक इष्ट न करोगे तो शास्त्रों का प्रणयन करना व्याघात दोषयुक्त क्यों न होगा? // 62-63 / /