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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 58 अर्थक्रिया स्थितिः प्रोक्ता विमुक्तिःसा न तत्र चेत् / शाब्दादाविव तद्भावोस्त्वभिप्रायनिवेदनात् // 61 // नाकांक्षानिवर्तनमपि संवादन। किं तर्हि? अर्थक्रिया स्थितिः। सा चाविमुक्तिरविचलनमर्थक्रियायां। न च तत्स्वप्नादौ दहनाद्यवभासस्यास्तीति केचित्। तेषां गीतादिशब्दज्ञानं चित्रादिरूपज्ञानं वा कथं प्रमाणं। तथा विमुक्तेरभावात् तदनंतरं कस्यचित्साध्यस्य फलस्यानुभवनात्। तत्रापि प्रतिपत्तुरभिप्रायनिवेदनात् साध्याविमुक्तिरितिचेत्, तर्हि निराकांक्षतैव स्वार्थक्रियास्थिति: स्वप्नादौ कथं न स्यात्। प्रबोधावस्थायां प्रतिपत्तुरभिप्रायचलनादितिचेत्, किमिदं तच्चलनं नाम ? धिङ् मिथ्या प्रतर्कितं मया इति प्रत्ययोपजननमिति चेत्, तत्स्वप्नादावप्यस्ति। न हि स्वप्नोपलब्धार्थक्रियायाश्चलनं जाग्रद्दशायां बाधकानुभवनमनुमन्यते, न लक्षण में अतिव्याप्ति दोष नहीं है। बौद्ध के ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं कि मनोहर वादित्र या संगीत आदि के शब्दजन्य ज्ञानों में जैसी थोड़ी देर ठहरने वाली अर्थक्रिया है, वैसी स्वप्न आदिक में भी होती है। वहाँ भी ज्ञाता को इष्ट अर्थ के अभिप्राय का निवेदन करने से साध्य की विमुक्ति न होना विद्यमान है॥६१॥ प्रश्न : आकांक्षाओं की निवृत्ति होना भी अविसंवाद नहीं है, तो क्या है? उत्तर : अर्थक्रिया का स्थित रहना ही अविसंवाद है। वह अर्थक्रिया स्थित रहना विमुक्त नहीं होना है। वह है अर्थक्रिया में विचलित नहीं होना और वह अविचलनपन स्वप्न आदि में देखी गई अग्नि आदि के ज्ञानों में नहीं है। अर्थात्-स्वप्न में देखी गई अग्नि से शीतबाधा की निवृत्ति नहीं होती है (अतः संवाद का लक्षण अर्थक्रिया की स्थिति करने पर प्रमाण का लक्षणं अतिव्याप्त नहीं होगा)। इस प्रकार कोई (सौत्रान्तिक बौद्ध) कहता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर उनके यहाँ संगीत आदि शब्दों का ज्ञान अथवा चित्र आदि का रूपज्ञान कैसे प्रमाण हो सकेगा क्योंकि इस प्रकार अर्थक्रिया की अविमुक्ति होना तो वहाँ नहीं है (गीत को सुनकर या विजुली को देखकर उनसे होने वाली अर्थक्रिया अधिक देर तक नहीं ठहरती है; शीघ्र ही विलीन हो जाती है)। यदि कहो कि उस संगीत आदि के ज्ञानों के अव्यवहित उत्तर काल में उनके द्वारा साधे गये किसी सुख सम्वित्ति, प्रतिकूलवेदन आदि फल का अनुभव हो जाता है। अत: वहाँ भी ज्ञाता पुरुष को अभिप्रेत अर्थ का निवेदन हो जाने से स्वप्न काल के लिए साध्य की अविमुक्ति है। जैनाचार्य कहते हैं तब तो इससे आकांक्षारहितपना ही ज्ञान की अपनी अर्थक्रिया सिद्ध हुई / वह स्वप्न, मत्त (पागल) आदि अवस्थाओं में सिद्ध क्यों नहीं होगी? अवश्य होगी। यदि कहो कि जागृत अवस्था में प्रतिपत्ता (ज्ञाता) के अभिप्राय का चलन हो जाता है सो स्वप्न ज्ञान द्वारा अर्थक्रिया की स्थिति होना नहीं माना जाता है। तो उस अभिप्राय का चलन क्या पदार्थ है? यदि कहो कि धिक्कार है कि 'मैंने स्वप्न अवस्था में झूठी ही प्रतर्कणाएँ की थीं।' इस प्रकार जागृत अवस्था में प्रतीतियों का उत्पन्न हो जाना ही स्वप्न ज्ञानों के अभिप्रायों का चलायमानपना है, तो वह चलन स्वप्न आदिक में भी विद्यमान है। अर्थात्-जागृत अवस्था में पदार्थों को देखकर पुनः स्वप्न में अन्य प्रकार जागने पर स्वप्न में ऐसा प्रत्यय उत्पन्न होता है कि धिक्कार है, मैंने जागृत अवस्था में झूठी ही तर्कणाएँ कर ली थीं' यहाँ यह कहना युक्त नहीं हो सकता है कि स्वप्न में देखे गये अर्थ क्रिया का चलायमान होना तो जागृत
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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