________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 57 नन्वेकमनेकात्मकं तत्त्वत: सिद्धं चेत् कथं विरुद्धमिति स्याद्वादविद्विषामुपालंभ: क्वचित्तद्विरुद्धमुपलभ्य सर्वत्र विरोधमुद्भावयतां न पुनरबाध्यप्रतीत्यनुसारिणाम्॥ प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमित्युपवर्ण्यते। कैश्चित्तत्राविसंवादो यद्याकांक्षानिवर्तनम् // 59 // तदा स्वप्नादिविज्ञानं प्रमाणमनुषज्यते। ततः कस्यचिदर्थेषु परितोषस्य भावतः॥६०॥ न हि स्वप्तौ वेदनेनार्थं परिच्छिद्य प्रवर्तमानोर्थक्रियायामाकांक्षातो न निवर्तते प्रत्यक्षतोनुमानतो वा दहनाद्यवभासस्य दाहाद्यर्थक्रि योपजननसमर्थस्याकांक्षितदहनाद्यर्थप्रापणयोग्यतास्वभावस्य जाग्रद्दशायामिवानुभवात् / तादृशस्यैवाकांक्षानिवर्तनस्य प्रमाणे प्रेक्षावद्भिरर्थ्यमानत्वात्। ततोतिव्यापि प्रमाणसामान्यलक्षणमिति आयातम् // शंका : जब एक पदार्थ वास्तविकरूप से अनेक धर्म आत्मक सिद्ध है तो एकपना और अनेकपना विरुद्ध कैसे कहा जाता है? समाधान : इस प्रकार स्याद्वाद से विशेष द्वेष करने वालों का उलाहना उनही के ऊपर लागू होता है। जो किसी एक स्थान पर उस एकपन और अनेकपन को विरुद्ध देखकर सभी स्थानों पर विरोध दोष को उठा देते हैं किन्तु निर्बाध प्रतीति के अनुसार वस्तु को जानने वाले स्याद्वादियों पर कोई उलाहना नहीं आता है। - जो ज्ञान विसंवादों से रहित है, वह प्रमाण है। इस प्रकार किन्हीं (बौद्ध) के द्वारा कहा जाता है। उसमें अविसंवाद का अर्थ क्या है? यदि ज्ञात पदार्थ में आकांक्षा का निवृत्त हो जाना अविसंवाद है, तब तो स्वप्न आदि अवस्थाओं में हुए विज्ञानों को भी प्रमाणपने का प्रसंग आएगा, क्योंकि उन स्वप्नादि के निमित्त से हुए ज्ञान द्वारा जाने गये पदार्थों में भी किसी जीव के परितोष का सद्भाव देखा जाता है।५९-६०॥ स्वप्नावस्था में उत्पन्न हुए ज्ञान द्वारा पदार्थ की ज्ञप्ति का प्रवर्तक मनुष्य अर्थक्रिया को करने में आकांक्षाओं से निवृत्त नहीं होता है, यह नहीं समझना चाहिए। . क्योंकि, प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण से जागती हुई दशा में जैसे दाह, पाक, सिंचन, पिपासानिवृत्ति आदि अर्थक्रियाओं को पैदा करने में समर्थ और आकांक्षा किये गए अग्नि आदि अर्थों को प्राप्त कराने की योग्यता स्वभाव वाले अग्नि, जल आदि अर्थों का प्रतिभास होता है, वैसे ही स्वप्न में भी अग्नि, जल आदि का प्रतिभास हो जाता है और उस ही प्रकार की आकांक्षानिवृत्ति का हिताहित विचारने वाले पुरुषों द्वारा प्रमाण में अभिलाषा की जाती है (जागृत अवस्था में पदार्थों को देखकर जिस प्रकार की आकांक्षा निवृत्ति हो जाती है, वैसी ही स्वप्न में भी पदार्थों का ज्ञान कर आकांक्षानिवृत्ति हो जाती है)। विचारशील पुरुष प्रमाणज्ञानों से भी यही अभिलाषा रखते हैं। अत: बौद्धों के द्वारा माना गया आकांक्षानिवृत्तिरूप अविसंवाद यह प्रमाण का सामान्य लक्षण अतिव्याप्ति दोषवाला है। ऐसा समझना चाहिए। संवाद का अर्थ वास्तविक अर्थक्रिया की स्थिति होना कहा गया है, और उस अर्थक्रिया का ठहरना, किसी प्रकार भी अर्थक्रिया की विमुक्ति नहीं होना है। ऐसी अर्थक्रिया की स्थिति उन स्वप्न, मत्त आदि अवस्थाओं के ज्ञान में नहीं है अत: