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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 56 चंद्रे चंद्रत्वविज्ञानमन्यत्संख्याप्रवेदनम्। प्रत्यासन्नत्वविच्चान्यत्वेकाद्याकारविन्न चेत् // 52 // हतं मेचकविज्ञानं तथा सर्वज्ञता कुतः। प्रसिद्ध्येदीश्वरस्येति नानाकारैकवित्स्थितिः॥५३॥ एक एवेश्वरज्ञानस्याकारः सर्ववेदकः / तादृशो यदि संभाव्यः किं ब्रह्मैवं न ते मतम् // 54 // तच्चेतनेतराकारकरंबितवपुः स्वयम्। भावैकमेव सर्वस्य संवित्तिभवनं परम् // 55 // यद्येकस्य विरुद्ध्येत नानाकारावभासिता। तदा नानार्थबोधोपि नैकाकारोवतिष्ठते // 56 // नाना ज्ञानानि नेशस्य कल्पनीयानि धीमता। क्रमात्सर्वज्ञताहानेरन्यथाऽननुसंधितः॥५७॥ तस्मादेकमनेकात्मविरुद्धमपि तत्त्वतः। सिद्धं विज्ञानमन्यच्च वस्तुसामर्थ्यतः स्वयम् // 58 // अविरोध की एक ज्ञान में व्यवस्था कराता है। कहा है कि “जिस प्रकार जिस ज्ञान में जितना अविसंवाद है, उस प्रकार उस ज्ञान में उतना प्रमाणपना है और जितना उसमें विसंवाद है उतना अप्रमाणत्व है। . ' चन्द्रमा में चन्द्रपने का ज्ञान पृथक् है और उसकी संख्या को जानने वाला ज्ञान भिन्न है, तथा चन्द्रमा के निकटवर्तीपन का वेदन अन्य है। एक दो आदि आकारों को जानने वाली परिच्छित्ति अन्य है। (अतः एक-एक आकार वाले ज्ञान पृथक्-पृथक् हैं। एक ज्ञान में अनेक आकार नहीं हैं।) ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर बौद्धों का माना हुआ चित्रज्ञान नष्ट हो जाता है। तथा अलग-अलग आकार वाले भिन्न-भिन्न ज्ञानों को मानने वाले वादी के यहाँ सर्वज्ञपना कैसे सिद्ध हो सकता है? एक ज्ञान से अनेक : पदार्थों का युगपत् प्रत्यक्ष कर लेना ही सर्वज्ञता है। इस प्रकार अनेक आकार वाले एक ज्ञान की सिद्धि हो जाती है।५२-५३॥ यदि सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाले ईश्वरज्ञान का सबको जानने वाला एक ही आकार सम्भव है अर्थात् परस्पर एक दूसरे से विशिष्ट अनेक पदार्थ एक हैं; उस एक का एक समुदित आकार एक ज्ञान में पड़ता है। ऐसी सम्भावना की जाती है तब तो इस प्रकार एक परम ब्रह्मतत्त्व ही तुम्हारे यहाँ क्यों नहीं मान लिया जाता है? ज्ञान और ज्ञेय सबमें एक होकर वह परमब्रह्म स्वयं सभी चेतन-अचेतन आकारों के सहारे अपने शरीर को धारता हुआ एक भावरूप है। वही सम्पूर्ण पदार्थों की उत्कृष्ट संवित्ति होना है। यदि एक अद्वैत ब्रह्म को नाना आकारों का प्रकाशकपना विरुद्ध पड़ेगा तब तो हम जैन कहते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ के अनेक अर्थों का ज्ञान भी एक आकार वाला अवस्थित नहीं हो सकता। क्योंकि एक ज्ञान में अनेक आकार मानने पर ही व्यवस्था हो सकती है।५४-५५-५६॥ बुद्धिमान पुरुष को ईश्वर के अनेक ज्ञान कल्पित नहीं करने चाहिए, क्योंकि एक-एक ज्ञान द्वारा एक-एक पदार्थ क्रम से जानने पर सर्वज्ञपने की हानि हो जाती है। अन्यथा दूसरे प्रमाण से सर्वज्ञता मानने पर पहिले पीछे के ज्ञानों द्वारा जान लिये गये पदार्थों का अनुसन्धान नहीं हो सकता है॥५७॥ ___अतः एक भी विज्ञान अनेक आत्मक विरुद्ध सदृश होता हुआ भी वास्तविक रूप से सिद्ध हो जाता है। तथा अन्य भी अग्नि, सुख आदिक पदार्थ वस्तु परिणति की सामर्थ्य से स्वयं अनेक धर्मात्मक सिद्ध हैं॥५८॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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