________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 55 सर्वेषामपि विज्ञानं स्ववेद्यात्मनि वेदकम् / नान्यवेद्यात्मनीति स्याविरुद्धाकारमंजसा // 50 // ____ सर्वप्रवादिनां ज्ञानं स्वविषयस्य स्वरूपमात्रस्योभयस्य वा परिच्छेदकं तदेव नान्यविषयस्येति सिद्ध विरुद्धाकारमन्यथा सर्ववेदनस्य निर्विषयत्वं सर्वविषयत्वं वा दुर्निवारं स्वविषयस्याप्यन्यविषयवदपरिच्छेदात्स्वविषयवद्वान्यविषयावसायात् / स्वान्यविषयपरिच्छेदनापरिच्छेदनस्वभावयोरन्यतरस्यां परमार्थतायामपीदमेव दूषणमुन्नेयमिति। परमार्थतस्तदुभयस्वभावविरुद्धमेकत्र प्रमाणेतरत्वयोरविरोधं साधयति॥ किं च - स्वव्यापारसमासक्तोन्यव्यापारनिरुत्सुकः। सर्वो भावः स्वयं वक्ति स्याद्वादन्यायनिष्ठताम् // 51 // सर्वोग्निसुखादिभावः स्वामर्थक्रियां कुर्वन् तदैवान्यामकुर्वन्ननेकांतं वक्तीति किं नश्चिंतया। स एव च प्रमाणेतरभावाविरोधमेकत्र व्यवस्थापयिष्यतीति सूक्तं “यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता" इति॥ सम्पूर्ण वादियों के यहाँ विज्ञान अपने और अपने द्वारा जानने योग्य विषयस्वरूप में ज्ञान करने वाला माना गया है। अन्य दूसरे वेद्यस्वरूप में जानने वाला प्रकृत विज्ञान नहीं है। इस प्रकार वेदकपना और अवेदकपना होने से ज्ञान के विरुद्ध आकारों को शीघ्र जान लेते हैं॥५०॥ सम्पूर्ण प्रवादियों के यहाँ माना गया ज्ञान अपने विषय या केवल अपने स्वरूप अथवा दोनों का जानने वाला है, वही ज्ञान अन्य विषयों का ज्ञायक नहीं है / इस प्रकार एक ज्ञान में ज्ञायकत्व और अज्ञायकत्व ये विरुद्ध आकार सिद्ध होते हैं। अन्यथा यानी जैसे ज्ञान अन्य विषयों का वेदक नहीं है, उसी प्रकार स्व या अन्य विषय अथवा उभय का भी वेदक न होता तो सभी ज्ञान निर्विषय हो जाते। कोई भी ज्ञान किसी भी विषय को नहीं जान सकता है क्योंकि अन्य विषयों के समान अपने विषय की भी ज्ञप्ति नहीं होती है तथा स्व और वेद्य को जानने के समान यदि अन्य उदासीन अज्ञेय विषयों का वेदक ज्ञान हो जाता तो सभी ज्ञानों को सर्व पदार्थों का विषय कर लेना दर्निवार हो जाता। यदि स्व और अन्य विषय का परिच्छेद करना और स्व या अन्य अथवा उभय विषयों का परिच्छेद नहीं करना, इन दोनों स्वभावों में से किसी एक को ही वास्तविक स्वभाव माना जाए, और शेष को वस्तुभूत धर्म न माना जाए तो भी ये ही दूषण पृथक् -पृथक् लागू हो जाएंगे। इस बात को पूर्व कथित कथन से समझ लेना चाहिए। इस प्रकार परमार्थरूप से वे वेदकत्व और अवेदकत्व दोनों विरुद्ध से होकर एक ज्ञान में पाये जाते हैं। क्योंकि ऐसा ज्ञान का स्वभाव है और वह स्वभाव (कर्ता) एक ज्ञान में प्रमाणपन और अप्रमाणपन के अविरोध की सिद्धि को करता है। - जब सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने योग्य व्यापार करने में लवलीन हैं और अन्य पदार्थ के करने योग्य व्यापार में उत्सुक नहीं है, ऐसी दशा में वे सभी भाव स्याद्वादनीति के अनुसार प्रतिष्ठित रहने को स्वयं कह रहे हैं // 51 // सभी अग्नि आदि बहिरंग पदार्थ और सुख आदि अन्तरंग पदार्थ अपनी-अपनी अर्थक्रियाओं को करते हुए और अन्य क्रियाओं को उस समय नहीं करते हुए अनेकान्त को कह रहे हैं, तो फिर हमको व्यर्थ चिन्ता करने से क्या प्रयोजन है? वह अर्थक्रिया का करना और न करना ही प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व के