________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *54 क्वचित्संवेदने कदाचित्स्वरूपोपलब्धिर्नास्ति ततः प्रत्यक्षत्वात् स्वसंवेदनादभिन्नो ग्राह्याकारविवेक: प्रत्यक्षों न पुनः परोक्षाबाह्याकारविवेकादभिन्नं स्वसंवेदनं बुद्धेः परोक्षमित्याचक्षाणो न परीक्षाक्षमः / प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्वयोर्भिन्नाश्रयत्वान्न तादात्म्यमिति चेन्न एकज्ञानाश्रयत्वात्तदसिद्धेः / संविन्मात्रविषया प्रत्यक्षता वेद्याकारविवेकविषया परोक्षतेति तयोभिन्नविषयत्वे कथं स्वसंवित्प्रत्यक्षतैव वेद्याकारविवेकपरोक्षता। स्वसंवेदनस्यैव वेद्याकारविवेकरूपत्वादिति चेत्, कथमेवं प्रत्यक्षपरोक्षत्वयोर्भिन्नाश्रयत्वं / धर्मिधर्मविभेदविषयत्वकल्पनादिति चेत् तर्हि न परमार्थतस्तयोर्भिन्नाश्रयत्वमिति संविन्मात्रप्रत्यक्षत्वे वेद्याकारविवेकस्य प्रत्यक्षत्वमायातं तथा तस्य परोक्षत्वे संविन्मात्रस्य परोक्षतापि किं न स्यात्। तत्र निश्चयोत्पत्तेः प्रत्यक्षतेति चेत्, वेद्याकारविवेकनिश्चयानुपपत्तेः परोक्षतैवास्तु। तथा चैकत्र संविदि सिद्धे प्रत्यक्षेतरते प्रमाणेतरयोः प्रसारिके स्त इति न विरोधः॥ परस्पर में कृतकत्व और अनित्य के समान एक दूसरे के साथ अविनाभावी है (इनका अविनाभाव सिद्ध है।) अतः प्रत्यक्षरूप स्वसंवेदन से अभिन्न ग्राह्याकार का पृथग्भाव प्रत्यक्ष हो जाए, किन्तु फिर परोक्षस्वरूप ग्राह्याकार विवेक से अभिन्न बुद्धि का स्वसंवेदन परोक्ष न बने, इस प्रकार कहने वाला बौद्ध परीक्षा को सहन नहीं कर सकता है अर्थात् ऐसा कहने वाला बौद्ध परीक्षक नहीं है। प्रत्यक्ष और परोक्ष का भिन्न-भिन्न आश्रय होने से उनके तदात्मकपना नहीं है ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि उन दोनों का आश्रय एक ज्ञान है अत: उनमें भिन्न आश्रय असिद्ध है या कि केवल संवेदन में प्रत्यक्षत्व है और वेद्याकार के पृथक्पने से परोक्षत्व है अतः प्रत्यक्ष और परोक्ष का विषय भिन्न है। इस प्रकार कहते हैं तो स्वसंवित्ति का प्रत्यक्षपना ही वेद्याकार विमुक्तता का परोक्षपना क्यों है? अर्थात् भिन्नभिन्न विषय होने पर तो स्वसंवित्ति का प्रत्यक्षपना और वेद्याकार का परोक्षपना अलग-अलग होना चाहिए था। यदि स्वसंवेदन को ही वेद्याकार विवेकस्वरूप होने के कारण उन दोनों को एक कह दिया जाता है तो फिर प्रत्यक्ष और परोक्ष को भिन्न आश्रयत्व कैसे सिद्ध होता है? धर्मी और धर्म के पृथक्-पृथक् भेद का विषय करने वाली कल्पना से भिन्न आश्रयपना यदि स्वीकार करेंगे तो वास्तविक रूप से उन ज्ञान रूप धर्मी के प्रत्यक्षपन और वेद्याकाररहिततारूप धर्म के परोक्षपन का आश्रय भिन्न-भिन्न नहीं होने से केवल संवेदन को प्रत्यक्षपना मानने पर उसके धर्म वेद्याकार पृथग्भाव का भी प्रत्यक्षपना प्राप्त हो जाता है। वैसे उस वेद्याकार विवेक को परोक्षपना प्राप्त होने पर अद्वैत संवेदन को भी परोक्षपना क्यों नहीं प्राप्त होगा? यदि उस संवेदन में पीछे विकल्पज्ञान द्वारा निश्चय उत्पन्न होने से प्रत्यक्षपना है, तो वेद्याकार विवेक में निश्चय नहीं होने से परोक्षपना होता है तथा (इस प्रकार) एक ज्ञान में प्रत्यक्षपना और परोक्षपना सिद्ध होते हुए एक मतिज्ञान या श्रुतज्ञान में भी प्रमाणपन और अप्रमाणपन को फैलाने वाले हो जाते हैं। इस प्रकार एक ज्ञान में प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व का कोई विरोध नहीं।