________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *53 - यैव बुद्धेः स्वयं वित्तिवेद्याकारविमुक्तता। सैवेत्यध्यक्षतैवेष्टा तस्यां किन्न परोक्षता // 49 // ___ बुद्धेः स्वसंवित्तिरेव वेद्याकारविमुक्तता तस्याः प्रत्यक्षतायां वेद्याकारविमुक्ततापि प्रत्यक्षतैव यदीष्यते तदा तस्याः परोक्षतायां स्वसंवित्तेरपि परोक्षता किं नेष्टा? स्वसंवित्तिवेद्याकारविमुक्तयोस्तादात्म्याविशेषात्॥ ननु च के वलभूतलोपलब्धिरेव घटानुपलब्धिरिति घटानुपलब्धितादात्म्येपि न के वलभूतलोपलब्धेरनुपलब्धिरूपतास्ति तद्वद्वेद्याकारविमुक्त्यनुपलब्धितादात्म्येपि न स्वरूपोपलब्धेरनुपलब्धिस्वभावता व्यापकस्य व्याप्याव्यभिचारात् व्याप्यस्यैव व्यापकव्यभिचारसिद्धेः पादपत्वशिशिपात्ववत्। स्वरूपोपलब्धिमात्रं हि व्याप्यं व्यापिका च वेद्याकारविमुक्त्यनुपलब्धिरिति चेत् नैतदेवं तयोः समव्याप्तिकत्वेन परस्पराव्यभिचारसिद्धेः कृतकत्वानित्यवत्। न हि वेद्याकारविवेकानुपलब्धावपि जो ज्ञान की स्वयं सम्वित्ति होती है, वह तो वेद्याकार से रहितपना है अत: वेद्याकार से रहितपना भी प्रत्यक्ष इष्ट किया जाता है तो उस वेद्य आकाररहितपने के परोक्ष होने पर स्वसंवेदन को भी स्वांश में परोक्षपना क्यों नहीं होगा? अर्थात् अवश्य होगा॥४९।। बुद्धि की स्वसंवित्ति होना ही वेद्याकारों से रहितपना है अत: उस बुद्धि को प्रत्यक्षपना होने पर वेद्याकार रहितपना भी प्रत्यक्ष ही है; परोक्ष नहीं है। यदि सौत्रान्तिक इस प्रकार इष्ट करेंगे तब तो उस वेद्याकार रहितपने के परोक्षपना होने पर स्वसंवित्ति अंश को भी परोक्षपना क्यों नहीं इष्ट कर लिया जाता है? क्योंकि ज्ञान की स्व संवित्ति और ज्ञान के वेद्याकार रहितपन का तादात्म्यसम्बन्ध विशेषताओं से रहित है अर्थात् स्वसंवित्ति और वेद्याकार रहितपने में कोई विशेषता नहीं है। . केवल रीते भूतल की उपलब्धि ही घट की अनुपलब्धि है, इस प्रकार भूतल की उपलब्धि और घट की अनुपलब्धि का तादात्म्य होने पर भी केवल भूतल की उपलब्धि को अनुपलब्धि स्वरूपपना नहीं है। उसी के समान वेद्याकार की विमुक्ति रूप अनुपलब्धि के साथ ज्ञान की स्वरूप संवित्ति का तादात्म्य सम्बन्ध होने पर भी बुद्धि की स्वसंवित्ति को विमुक्तिरूप अनुपलब्धि का परोक्षता रूप स्वभावपना नहीं है क्योंकि व्यापक का व्याप्य के साथ व्यभिचार नहीं होता है अपितु व्याप्य के ही व्यापक के साथ व्यभिचार की सिद्धि है, वृक्ष और शिंशिपात्व के समान / भावार्थ : व्यापक सर्वत्र रहता है, व्याप्य एक में रहता है इसलिए जहाँ व्याप्य (शीशम) होगा वहाँ व्यापक (वृक्ष) अवश्य होगा परन्तु व्यापक के होने पर व्याप्य का होना आवश्यक नहीं है। इस प्रकरण में ज्ञान के केवल स्वरूप की उपलब्धि होना व्याप्य है और वेद्याकार रहितपना रूप अनुपलब्धि व्यापिका है (इसलिए स्वसंवित्ति के प्रत्यक्ष होने पर वेद्याकार रहितता का प्रत्यक्ष होना कहा जा सकता है किन्तु वेद्याकार रहित के परोक्ष होने पर स्वसंवित्ति को परोक्ष नहीं कहा जा सकता)। बौद्ध के इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों को वेद्याकारविमुक्तिरूप अनुपलब्धि के होने पर भी किसी एक संवेदन में कभी अपने स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती है, यह नहीं कहना। अर्थात्वेद्याकार विमुक्तता को व्यापक और स्वरूप उपलब्धि को व्याप्य नहीं कह सकते। क्योंकि ये दोनों ही