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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 52 न चैकत्र प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे विरोधिनी। प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्वे यथैकत्रापि संविदि॥४६॥ ययोरेकसद्भावेऽन्यतरानिवृत्तिस्तयोर्न विरोधो यथा प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्वयोरेकस्यां संविदि। तथा च प्रमाणत्वाप्रमाणत्वयोरेकत्र ज्ञाने ततो न विरोधः। 'स्वसंविन्मावतोध्यक्षा यथा बुद्धिस्तथा यदि। वेद्याकारविनिर्मुक्ता तदा सर्वस्य बुद्धता // 47 // तया यथा परोक्षत्वं हृत्संवित्तेरतोपि चेत् / बुद्धादेरपि जायेत जाड्यं मानविवर्जितम् // 48 // न हि सर्वस्य बुद्धता बुद्धादेरपि च जाड्यं सर्वथेत्यत्र प्रमाणमपरस्यास्ति यतः संविदाकारेणेव वेद्याकारविवेकेनापि संवेदनस्य प्रत्यक्षता युज्येत तद्वदेव वा संविदाकारेण परोक्षता तदयोगे च कथं दृष्टांतः साध्यसाधनविकल: हेतुर्वा न सिद्धः स्यात्॥ किसी अपेक्षा वह ज्ञान प्रमाण है परिपूर्ण वस्तु को जानता है और किसी अपेक्षा अप्रमाण है। केवलज्ञान के पहले कोई भी सर्व रूप से वस्तु को नहीं जानता है। यहाँ पर अप्रमाण का अर्थ मिथ्याज्ञान नहीं है अपितु ईषद् ज्ञान है। सो ही कहते हैं ___एक ज्ञान में प्रमाणपना और अप्रमाणपना विरोध दोष वाले नहीं हैं जैसे कि बौद्धों के यहाँ एक ज्ञान में भी प्रत्यक्षपना और परोक्षपना विरोधयुक्त नहीं है॥४६॥ जिन दोनों में से एक के विद्यमान होने पर दूसरे एक की निवृत्ति नहीं होती है, उनका विरोध नहीं माना जाता है। जैसे एक संवेदन में प्रत्यक्षपन और परोक्षपन का विरोध नहीं है, उसी प्रकार प्रमाणपन और अप्रमाणपन का एक ज्ञान में उस हेतु से विरोध नहीं है अर्थात् व्याप्ति एवं अनुमान द्वारा प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व का अविरोध सिद्ध कर दिया है। जिस प्रकार केवल स्वसंवेदन की अपेक्षा से बुद्धि प्रत्यक्ष है, उसी प्रकार वेद्य, वेदक आकार से रहितपना भी यदि प्रत्यक्षरूप होता तो सब जीवों को सुगतपना प्राप्त हो जाता / यांनी सब सर्वज्ञ हो जाते। ___तथा उस वेद्याकार रहितपने से जैसे बुद्धि का परोक्षपना है, वैसा इस स्वसंवित्ति की अपेक्षा से भी यदि परोक्षपना माना जायेगा तो बुद्ध या अन्य मुक्त आत्मा आदि को भी प्रमाण रहित होने से जड़त्व हो जावेगा अर्थात् सर्वांगरूप से ज्ञान में परोक्षपना कहना जड़पन कहने के समान है। यानी जिसको स्व का भी प्रत्यक्ष नहीं है जो अपने आपको नहीं जानता है, वह जड़ है।४७-४८॥ सर्वथा सब जीवों को बुद्धपना हो जाए और बुद्ध आदि को जड़पना प्राप्त हो जाए, इस विषय में दूसरे बौद्ध आदि वादियों के यहाँ कोई प्रमाण नहीं है, जिससे कि सम्वित्ति आकार के द्वारा जैसे संवेदन को प्रत्यक्षपना है, वैसे ही सम्वेद्य आकार के पृथक् रूप से भी सम्वेदन को प्रत्यक्षपना युक्त हो। तथा वेद्य आकार के विवेक जैसे परोक्षपना है, उसी प्रकार ज्ञान में सम्वित्ति आकार के भी परोक्षपना हो जायेगा। जब वह व्यवस्था ही नहीं है तो हमारे द्वारा दिया हुआ एक संवेदन में प्रत्यक्षपरोक्षपने का दृष्टान्त साध्य और साधन से रहित कैसे हो सकता है? और हेतु भी सिद्ध क्यों नहीं होगा?
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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