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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *51 स्वरूपवदित्यप्ययुक्तं, प्रकृतप्रमाणात्प्रमाणांतरसिद्धिप्रसंगात्। तिमिराश्वभ्रमणनौयातसंक्षोभाद्याहितविभ्रमस्य वेदनस्य प्रत्यक्षत्वे प्रत्यक्षमभ्रांतमिति विशेषणानर्थक्यं / तस्याप्यभ्रांततोपगमे कुतो विसंवादित्वं विकल्पज्ञानस्य च प्रत्यक्षत्वे कल्पनापोढं प्रत्यक्षमिति विरुध्यते तस्यानुमानत्वे अक्षादिविकल्पस्यानुमानत्वप्रसंगस्तस्यालिंगजत्वादननुमानत्वे प्रमाणांतरत्वमनिवार्यमिति मिथ्याज्ञानं स्वरूपे प्रमाणं बहिरर्थे , त्वप्रमाणमित्यभ्युपगंतव्यं / तथा च सिद्धं देशतः प्रामाण्यं / तद्वदवितथवेदनस्यापीति सर्वमनवा एकत्र प्रमाणत्वाप्रमाणत्वयोः सिद्धिः / कथमेकमेव ज्ञानं प्रमाणं वाप्रमाणं च विरोधादिति चेत् नो, असिद्धत्वाद्विरोधस्य। तथाहि - __ सभी मिथ्याज्ञान विकल्पज्ञानरूप ही हैं अत: स्वरूप में वे जैसे प्रमाण हैं, वैसे बहिरंग अर्थ में भी प्रमाण हैं, यह कहना भी अयुक्त है। क्योंकि ऐसा कहने पर अभीष्ट प्रकरण प्राप्त प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों से अतिरिक्त तीसरे प्रमाण की सिद्धि होने का प्रसंग आता है (परन्तु बौद्धों ने विकल्पज्ञान को प्रमाण नहीं माना है)। अधिक ऊष्म के कारण तमारा आ जाने पर तिमिर दोष से अनेक भ्रान्तज्ञान होते हैं। शीघ्र-शीघ्र भ्रमण चक्कर करने से भी घुमारी आकर अनेक पदार्थ घूमते हुए देखते हैं। नाव में बैठकर चलने में भी दिग्भ्रम हो जाता है। ___ विशेष क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर विपरीत ज्ञान हो जाते हैं। अत्यन्त प्रिय पदार्थ के वियोग आदि कारणों से उत्पन्न हुए विभ्रम ज्ञानों को यदि प्रत्यक्ष प्रमाण मान लिया जायेगा तो प्रत्यक्ष के लक्षण में दिया गया अभ्रान्त यह विशेषण व्यर्थ होगा। अर्थात् ‘कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षं' इस प्रत्यक्ष के लक्षण में भ्रमभिन्नपना विशेषण जो मिथ्याज्ञानों के निवारणार्थ दिया है, मिथ्याज्ञानों को प्रमाण मानने पर व्यर्थ पड़ता यदि बौद्ध उस मिथ्याज्ञान रूप विकल्पज्ञान को भी अभ्रान्तपना स्वीकार कर लेंगे तो विकल्पज्ञान को विसंवादीपना कैसे हो सकेगा? और विकल्पज्ञान को प्रत्यक्षपना यदि इष्ट कर लिया जाएगा तो “कल्पनाओं से रहित प्रत्यक्ष प्रमाण होता है।" यह अभीष्ट लक्षण वाक्य विरुद्ध होगा अतः विकल्पज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हो नहीं सकता। यदि उस विकल्पज्ञान को अनुमान प्रमाण मानोगे तो इन्द्रिय, मन आदि से उत्पन्न हुए विकल्पज्ञान को अनुमानपने का प्रसंग आयेगा। यदि अविनाभावी हेतु से उत्पन्न नहीं होने से अक्ष आदि विकल्प को अनुमान प्रमाण नहीं मानोगे तो प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न तीसरा प्रमाण मानना अनिवार्य होगा अतः अपने स्वरूप को जानने में मिथ्याज्ञान प्रमाण है और बहिरंग विषयों के जानने में अप्रमाण है यह स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसा मानने पर तो मिथ्याज्ञान में भी एकदेश प्रमाणपना सिद्ध हो जाता है। उसी मिथ्याज्ञान के समान समीचीन ज्ञान को भी एकदेश से प्रमाणपना है। - इस प्रकार हमारा पूर्वोक्त मन्तव्य सबका सब निर्दोष है, एक ज्ञान में प्रमाणपने और अप्रमाणपने की सिद्धि हो जाती है। ' एक ही ज्ञान प्रमाण और अप्रमाण कैसे हो सकता है? क्योंकि इसमें विरोध दोष आता है। इस प्रकार नहीं कहना क्योंकि प्रमाणपन और अप्रमाणपन के एकस्थान पर होने में विरोध होना असिद्ध है अर्थात्
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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