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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *50 सत्यज्ञानस्यैव प्रमाणत्वव्यवहारो युक्तिमान् भूयः संवादात्। वितथज्ञानस्यैव वाऽप्रमाणत्वव्यवहारो भूयो विसंवादात् तदाश्रितत्वात्तद्व्यवहारस्य / दृष्टो हि लोके भूयसि व्यपदेशो यथा गंधादिना गंधद्रव्यादेः सत्यपि स्पर्शवत्त्वादौ। येषामेकांततो ज्ञानं प्रमाणमितरच्च न। तेषां विप्लुतविज्ञानप्रमाणेतरता कुतः // 44 // ____ अथायमेकांत: सर्वथा वितथज्ञानमप्रमाणं सत्यं तु प्रमाणमिति चेत् तदा कुतो वितथवेदनस्य स्वरूपे प्रमाणता बहिरर्थे त्वप्रमाणतेति व्यवतिष्ठेत्॥ स्वरूपे सर्वविज्ञानाप्रमाणत्वे मतक्षतिः। बहिर्विकल्पविज्ञानप्रमाणत्वे प्रमांतरम् // 45 // न हि सत्यज्ञानमेव स्वरूपे प्रमाणं न पुनर्मिथ्याज्ञानमिति युक्तं / नापि सर्वं तत्राप्रमाणमिति सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमिति स्वमतक्षतेः। सर्वं मिथ्याज्ञानं विकल्पविज्ञानमेव बहिरर्थे प्रमाणं सत्यज्ञान में ही प्रमाण का व्यवहार युक्ति सहित है और बहुलता से विसंवाद हो जाने के कारण मिथ्या ज्ञानों को ही अप्रमाण का व्यवहार है, क्योंकि उन संवाद और विसंवाद के आधीन होकर वह प्रमाणपना और अप्रमाणपना व्यवस्थित होता है। लोक में भी बहुभाग से स्वभावों में वैसा व्यवहार होना देखा जाता है जैसे कि स्पर्श, रस आदि के होने पर भी गन्ध द्रव्य, रस द्रव्य आदि को अविभाग प्रतिच्छेदों की प्रचुरता से गन्ध आदि करके गन्धवान रसवान रूपवानपने का व्यवहार होता है। जिन वादियों के यहाँ एकान्त से समीचीन ज्ञान प्रमाण ही है और उससे भिन्न मिथ्याज्ञान सर्वथा प्रमाण नहीं है, ऐसा आग्रह है, उनके यहाँ मिथ्याज्ञानों की प्रमाणता और अप्रमाणता कैसे व्यवस्थित होगी? अर्थात् नहीं हो सकती // 44 // यदि किसी का यह एकान्त है कि झूठा ज्ञान तो सभी अंशों में अप्रमाण है और सत्य ज्ञान सर्व अंशों में प्रमाण है, तब तो मिथ्याज्ञान को स्वरूप में प्रमाणपना और बहिरंग विषय को जानने में अप्रमाणपना यह कैसे व्यवस्थित होगा ? यानी मिथ्याज्ञान अपने को जानने में अप्रमाण है तब तो अव्यवस्था हो जाएगी। अर्थात् सभी ज्ञानों को अपना स्वरूप जानने में प्रमाणपन अनिवार्य होना चाहिए। सम्पूर्ण विज्ञानों को यदि स्वरूप में प्रमाणपना माना जाएगा तो बौद्धों को अपने सिद्धान्त की क्षति प्राप्त होगी और यदि विकल्पज्ञानों को बहिरंग अर्थ को विषय करने में प्रमाणपना माना जाएगा तो प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों से अलग एक तीसरा प्रमाण मानने का प्रसंग आयेगा // 45 / / समीचीन ज्ञान ही अपने स्वरूप में प्रमाण है। मिथ्याज्ञान अपने स्वरूप में प्रमाण नहीं है। यह कहना युक्त नहीं है तथा सभी ज्ञान उस अपने स्वरूप को जानने में अप्रमाण हैं, यह भी कहना युक्तिपूर्ण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर बौद्धों के मत की क्षति होती है। सम्पूर्ण आत्माओं के ज्ञानों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, ऐसा बौद्धों ने माना है। यानी सभी सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना अभीष्ट कर ज्ञानों को स्वांश में अप्रमाणपना कहने पर बौद्धों को अपने मत की हानि उठानी पड़ती है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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