________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 249 अनुपप्लुतदृष्टीनां चंद्रादिपरिवेदनम्। तत्संख्यादिषु संवादि न प्रत्यासन्नतादिषु // 40 // तथा ग्रहोपरागादिमात्रे श्रुतमबाधितम् / नांगुलिद्वितयादौ तन्मानभेदेऽन्यथा स्थिते // 41 // ___ एवं हि प्रतीति: सकलजनसाक्षिका सर्वथा मतिश्रुतयोः स्वार्थे प्रमाणतां हंतीति तया तदेतत्प्रमाणमबाधम्॥ ननूपप्लुतविज्ञानं प्रमाणं किं न देशतः। स्वप्नादाविति नानिष्टं तथैव प्रतिभासनात् // 42 // स्वप्नायुपप्लुतविज्ञानस्य क्वचिदविसंवादिनः प्रामाण्यस्येष्टौ तद्व्यवहारः स्यादितिचेत् - प्रमाणव्यवहारस्तु भूयः संवादमाश्रितः। गंधद्रव्यादिवद्भूयो विसंवादं तदन्यथा // 43 // जिनकी दृष्टि च्युत नहीं हुई है, ऐसे पुरुषों को चन्द्रमा आदि का परिज्ञान उनकी संख्या आदि विषयों में तो संवादयुक्त है परन्तु निकटपना आदि में संवादी नहीं है। तथा ज्योतिष शास्त्र के द्वारा सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण का सामान्यरूप से ज्ञान हो जाता है उतना श्रुतज्ञान बाधारहित है किन्तु दो अंगुल तथा तीन अंगुल ग्रहण पड़ने में अथवा भिन्न-भिन्न अनेक देशों में उसके परिणाम का ठीक विधान करने में वह श्रुतज्ञान बाधारहित नहीं है क्योंकि, अनेक देशों और ग्रामों में ग्रहण की विशेषतायें दूसरे प्रकारों से स्थित होती हैं। (अत: मति और श्रुत सम्पूर्ण रूप से प्रमाण नहीं कहा जा सकता है। जिन जीवों की दृष्टि च्युत हो रही है, उनके मतिज्ञान या श्रुतज्ञान तो संवाद रहित प्रसिद्ध ही है।) // 40-41 / / इस प्रकार की प्रतीतियाँ सम्पूर्ण मनुष्यों की साक्षी से प्रसिद्ध हैं,अतः वे प्रतीतियाँ ही मति और श्रुतज्ञान के द्वारा जाने गये स्व और अर्थ रूप विषय में सभी प्रकारों से प्रमाणपन को नष्ट कर देती हैं। केवल एकदेश से प्रमाणपन को रक्षित रखती हैं। इस प्रकार उन प्रतीतियों से जितना अंश संवादरूप है, उतने अंश में बाधारहित होने से मति और श्रुत प्रमाण हैं। शंका : यदि थोड़े-थोड़े अंश से ही ज्ञान में प्रमाणता आती है तो स्वप्न आदि अवस्थाओं में होने वाले झूठे ज्ञानों को भी एकदेश से प्रमाणपना क्यों नहीं होगा? समाधान : आचार्य कहते हैं यह कथन ठीक है, हमको अनिष्ट नहीं है, क्योंकि, उस प्रकार ही प्रतिभास होता है॥४२॥ प्रश्न : किसी अंश में अविसंवाद रखने वाले स्वप्न आदि में हुए चलायमान ज्ञानों को यदि प्रमाणपना जैनों को इष्ट है, तब तो उन मिथ्याज्ञानों में उस प्रमाणपने का व्यवहार हो जाएगा? ऐसा कहने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि प्रमाणत्व का व्यवहार तो अनेक बार हुए संवाद का आश्रय लेकर होता है। जैसे गंध द्रव्य, रस द्रव्य आदि हैं तथा भूरिभूरि विसंवाद के आश्रित अप्रमाण व्यवहार होता है अर्थात् जिन ज्ञानों में अति अधिक संवाद है, वे प्रमाण हैं तथा जिन ज्ञानों में बहुत विसंवाद हैं, वे अप्रमाण हैं // 43 // भावार्थ : जैसे बहुत बार यह चन्दन की गन्ध है या कपूर की' इसका आश्रय लेकर गन्ध के विषय मे विसंवाद होता है वैसे ही प्रमाण में जानना चाहिए।