________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*४१ अंत्यशब्देषु शब्दत्वे ज्ञानमेकांततः कथम्। विदधीत विशेषस्याभावे यौगस्य दर्शने // 29 // तथागतस्य संयुक्तविशेषणतया दृशा। ज्ञानेनाधीयमानेपि समवायादिवित्कुतः॥३०॥ योग्यतां कांचिदासाद्य संयोगादिरयं यदि। क्षित्यादिवित्तदेव स्यात्तदा सैवास्तु संमता // 31 // स्वात्मा स्वावृतिविच्छेदविशेषसहितः क्वचित् / संविदं जनयन्निष्टः प्रमाणमविगानतः॥३२॥ शक्तिरिंद्रियमित्येतदनेनैव निरूपितं। योग्यताव्यतिरेकेण सर्वथा तदसंभवात् // 33 // के दर्शन में ऐसी कोई विशेषता नहीं है तो फिर अन्तिम शब्दों में रहने वाले शब्दत्व का ही एकान्तरूप से ज्ञान वह सन्निकर्ष कैसे करा देगा? यहाँ चौथे पाँचवें सन्निकर्ष का अन्वयव्यभिचार है॥२७-२८-२९॥ इस प्रकार के संयुक्त समवायादिका नेत्र के साथ संयुक्तविशेषणता सम्बन्ध करके ज्ञान द्वारा जान लेने पर भी समवाय, स्वरूप, विशेषणता आदि उत्तरोत्तर वृद्धिंगत सम्बन्धों का ज्ञान कैसे करोगे? अर्थात् जैसे कि संयोग और समवाय को सन्निकर्ष द्वारा जानना आवश्यक है, वैसे ही स्वरूपसम्बन्ध, विशेषणता सम्बन्ध आदि का जानना भी वैशेषिकों को आवश्यक हो जाएगा // 30 // भावार्थ : इस कारिका में तथाभाव और तथागत दो शब्द हैं। जब तथागत शब्द का अर्थ किया जाता है तब घटगत (घट में रहने वाले) समवाय के साथ चक्षु का संयुक्त विशेषण सम्बन्ध, रूप में रहने वाले समवाय के साथ संयुक्त समवेत विशेषण और रूपत्व जाति में रहने वाले समवाय के साथ चक्षु का संयुक्त समवेत-समवेत विशेषण का द्रव्य होने से चक्षु और घट का संयोग सम्बन्ध है। अर्थात् चक्षु संयुक्त घट में रूपगुण समवाय से है। उस रूप गुण में रूपत्व का समवाय है, रूपत्व में प्रतियोगिता सम्बन्ध से समवाय है उसको चक्षु इन्द्रिय कैसे ग्रहण करती है? उसमें स्थित रस को चक्षु इन्द्रिय ग्रहण क्यों नहीं करती है? यदि तथाभाव शब्द का अर्थ अभाव और समवाय के प्रत्यक्ष कराने में संयुक्त विशेषणता, संयुक्त समवेत विशेषणता आदि सन्निकर्ष माना जाता है तो चक्षु के साथ भूतल संयुक्त है और भूतल में घट का अभाव है। आम.के रस का समवाय है रस में रूपत्व का अभाव है अतः चक्ष के द्वारा रस में संयुक्त समवेत विशेषणता सन्निकर्ष द्वारा रूपत्व का अभाव जान लिया जाता है तथा रूपत्व, रसत्व आदि में घट आदि * का अभाव संयुक्त समवेत-समवेत विशेषणता सन्निकर्ष से जान लिया जाता है। इस प्रकार पदार्थों का अभाव समवाय चक्षु के द्वारा कैसे जाना जाता है? अर्थात् नहीं जाना जा सकता। यदि सन्निकर्ष संयोग आदि किसी विशेष योग्यता को प्राप्त करके पृथ्वी, जल आदि का ज्ञान कराते हैं परन्तु वह योग्यता आकाश, रसत्व, शब्दत्व, आदि में न होने से चक्षु इन्द्रिय के द्वारा उनकी प्रमा नहीं हो पाती है। ऐसा कहते हो तब तो हम जैन कहेंगे कि वह योग्यता ही सबको स्वीकार करनी चाहिए। अपनी आत्मा ही अपने ज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम विशेष से युक्त होकर किसी योग्य पदार्थ में ज्ञान को उत्पन्न कराती है उसी को निर्दोष प्रमाणभूत इष्ट किया गया है। मीमांसकों की शक्तिरूप इन्द्रियों का भी इस उक्त कथन से ही निरूपण कर दिया गया समझ लेना चाहिए क्योंकि, योग्यता से अतिरिक्त उन शक्तिरूप इन्द्रियों की सभी प्रकार से असम्भवता है वह योग्यता आत्मा की लब्धिरूप परिणति है। अत: आत्मा ही भाव इन्द्रिय सहित चक्षु आदिकों के द्वारा नियत पदार्थों को जानता है॥३१-३२-३३।।