________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 42 सन्निकर्षस्य योग्यताख्यस्य प्रमितौ साधकतमस्य प्रमाणव्यपदेश्यं प्रतिपाद्यमानस्य स्वावरणक्षयोपशमविशिष्टात्मरूपतानिरूपणेनैव शक्तेः। इंद्रियतयोपगतायास्सा निरूपिता बोद्धव्या तस्या योग्यतारूपत्वात्। ततो व्यतिरेकेण सर्वथाप्यसंभवात् सन्निकर्षवत्। न हि तद्व्यतिरेक: सन्निकर्षः संयोगादि: स्वार्थप्रमितौ साधकतमः संभवति व्यभिचारात् / तत्र करणत्वात्सन्निकर्षस्य साधकतमत्वं तद्वदिद्रियशक्तेरपीतिचेत्, कुतस्तत्करणत्वं? साधक तमत्वादिति चेत् परस्पराश्रयदोषः। तद्भावाभावयोस्तद्वत्तासिद्धेः साधकतमत्वमित्यपि न साधीयोऽसिद्धत्वात् / स्वार्थप्रमिते: सन्निकर्षादिसद्भावेप्यभावात्, तदभावेपि च भावात् सर्वविदः / कथं वा प्रमातुरेवं साधकतमत्वं न स्यात। न हि तस्य भावाभावयोः प्रमितेर्भावाभाववत्त्वं नास्ति? साधारणस्यात्मनो नास्त्येवेति चेत् संयोगादेरिद्रियस्य च प्रमिति में प्रकृष्ट साधकतम योग्यता नामक सन्निकर्ष को प्रमाण के व्यवहार को समझने वाले वादी के द्वारा स्वावरण के क्षयोपशम से विशिष्ट आत्मस्वरूप निरूपण के द्वारा इन्द्रियपन से वह शक्ति स्वीकार कर ली गई है, यह स्वयमेव निरूपण कर दिया है ऐसा समझ लेना चाहिए क्योंकि, वह शक्ति योग्यता रूप ही है। उस योग्यता से भिन्न इन्द्रिय शक्ति की सर्वथा असम्भवता है जैसे कि योग्यता के सिवाय सन्निकर्ष कोई वस्तु नहीं है। उस योग्यतारूप सन्निकर्ष से अतिरिक्त वैशेषिकों द्वारा माने गए संयोग संयुक्तसमवाय आदि सन्निकर्ष तो स्व और अर्थ की प्रमा कराने में साधकतम सम्भव नहीं है क्योंकि इसमें व्यभिचार दोष आता है अर्थात् जो-जो सन्निकर्ष होता है वह वस्तु के ज्ञान कराने में साधकतम हो, ऐसा नियम नहीं है। जैसे उस प्रमिति में करण होने के कारण सन्निकर्ष को साधकतमपना है। उसी के समान इन्द्रिय शक्तियों को भी साधकतमपना है इस प्रकार प्रतिवादियों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि उन दोनों में करणपना कैसे है? यदि क्रियासिद्धि में प्रकष्ट साधकतम होने से करणपना कहोगे तो अन्योन्याश्रय दोष आता है क्योंकि साधकतम होने से करणपना और करणपने से क्रिया का साधकतमपना सिद्ध होता है। अन्योन्याश्रय के निवारणार्थ उस करण के होने पर उस कार्य का होना और न होने पर उत्पन्न नहीं होने की सिद्धि से साधकतमपना कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि संयोग आदि सन्निकर्ष और इन्द्रिय शक्ति का स्व और अर्थ की प्रमिति के साथ अन्वय और व्यतिरेक सिद्ध नहीं है। आत्मा, रस, रसत्व आदि के साथ चक्षु का संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, सन्निकर्षादि होने पर भी अथवा इन्द्रिय शक्ति के विद्यमान होने पर भी स्व और अर्थ की प्रमिति हो जाने का अभाव है। तथा भूत, भविष्य, दूरवर्ती आदि पदार्थों के साथ सर्वज्ञ की इन्द्रियों का उन संयोग आदि सन्निकर्षों के नहीं होते हुए भी सर्वज्ञ के स्व और अर्थ की प्रमिति का सद्भाव पाया जाता है। (इसलिए सन्निकर्ष प्रमाण में अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार दोष आते हैं।) अथवा करण के भाव और अभाव से कार्य के भाव अभाव हो जाने से ही यदि करणपना व्यवस्थित है तो प्रमाता आत्मा को साधकतमपना क्यों नहीं होता है? अर्थात् स्वतंत्रकर्त्ता होने से आत्मास्वरूप कारण के साथ भी स्वार्थप्रमिति का अन्वय व्यतिरेक बन जाता है। उस आत्मा स्वरूप कारण के होने पर प्रमिति