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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 37 अर्थग्रहणयोग्यत्वमात्मनश्चेतनात्मकम् / सन्निकर्षः प्रमाणं नः कथंचित्केन वार्यते // 12 // तथापरिणतो ह्यात्मा प्रमिणोति स्वयं स्वभुः। यदा तदापि युज्येत प्रमाणं कर्तृसाधनम् // 13 // संनिकर्षः प्रमाणमित्येतदपि न स्याद्वादिना वार्यते कथंचित्तस्य प्रमाणत्वोपगमे विरोधाभावात् / पुंसोऽर्थग्रहणयोग्यत्वं सन्निकर्षो न पुनः संयोगादिरिष्टः। न ह्यर्थग्रहणयोग्यतापरिणतस्यात्मनः प्रमाणत्वे कश्चिद्विरोध: कर्तृसाधनस्य प्रमाणस्य तथैव च घटनात्। प्रमात्रात्मकं च स एव प्रमाणमिति चेत् , प्रमातृप्रमाणयोः कथंचित्तादात्म्यात्॥ प्रमाता भिन्न एवात्मप्रमाणाद्यस्य दर्शने। तस्यान्यात्मा प्रमाता स्यात् किन्न भेदाविशेषतः॥१४॥ में नहीं आ रहा है अतः प्रमा का साधकतमपना होने के कारण चेतनस्वरूप भाव इन्द्रियों को हम प्रमाण स्वीकार करते हैं। इस प्रकार मानने पर आगम से विरोध आने का कोई प्रसंग नहीं आता है क्योंकि क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशुद्धिरूप लब्धि और उससे उत्पन्न हुआ निराकार दर्शन और साकार ज्ञानस्वरूप उपयोग ये भाव इन्द्रियाँ हैं, ऐसा उमास्वामी महाराज का वचन है। अर्थों को विकल्पसहित ग्रहण करने रूप ज्ञान उपयोग को प्रमाणपना सिद्ध है। आत्मा की चेतनस्वरूप अर्थग्रहण योग्यता यदि सन्निकर्ष है तो यह सन्निकर्ष हम जैनों के यहाँ प्रमाण है। इस सन्निकर्ष का किसी भी प्रकार से किसी के द्वारा क्या निवारण किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता तथा जब अर्थ को ग्रहण करने की योग्यतारूप परिणति से परिणमन करती हुई आत्मा स्वयं स्वतंत्र समर्थ होकर जान रही है, तब भी कर्ता में अनट् प्रत्यय कर साधा गया प्रमाण चेतनस्वरूप हो जाता है, अर्थात् स्वतंत्र विवक्षा में कर्तृ साधन होता है॥१२-१३॥ सन्निकर्ष प्रत्यक्ष प्रमाण है यह मत भी स्याद्वादियों के द्वारा खण्डन नहीं किया जाता है। किसी अपेक्षा उस सन्निकर्ष को प्रमाणपन स्वीकार करने में हमें विरोध नहीं आता है। आत्मा की अर्थ को ग्रहण करने की योग्यता ही तो सन्निकर्ष है, परन्तु वैशेषिकों के द्वारा माने गये संयोग, समवाय आदि सन्निकर्ष अभीष्ट नहीं हैं। जिस समय आत्मा अर्थ के ग्रहण करने की योग्यतारूप परिणाम करता है, ऐसी आत्मा के प्रमाणपन हो जाने में कोई विरोध नहीं है। कर्तृ साधन प्रमाण भी इसी प्रकार घटित होता है। शंका : प्रमाता आत्मा है, वही प्रमाण है ऐसा कहा गया है। अर्थात् पदार्थों को जानने वाला आत्मा ही प्रमाण है ऐसा कहने पर ज्ञान प्रमाण कैसे हो सकता है ? समाधान : आचार्य कहते हैं कि प्रमाता और प्रमाण में किसी अपेक्षा से तादात्म्य सम्बन्ध है। अर्थात् अर्थग्रहण योग्यता परिणति से परिणाम करने वाली आत्मा स्वंतत्र प्रमाता है और उसका लब्धि और उपयोगरूप परिणाम करण रूप से प्रमाण है तथा अज्ञाननिवृत्तिरूप परिणति प्रमिति है। अपने को जानते समय स्वयं प्रमेयरूप भी है। . जिस वैशेषिक या नैयायिक के मत में प्रमाण से प्रमाता आत्मा सभी प्रकार भिन्न ही मानी जाती है उसके दर्शन में दूसरी आत्मा प्रमाता क्यों न होगी, क्योंकि भेद में कोई विशेषता नहीं है॥१४॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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