SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*३८ प्रमाणं यत्र संबद्धं स प्रमातेति चेन्न किम् / कायः संबद्धसद्भावात्तस्य तेन कथंचन // 15 // प्रमाणफलसंबंधी प्रमातैतेन दूषितः। संयुक्तसमवायस्य सिद्धेः प्रमितिकाययोः॥१६॥ ज्ञानात्मकप्रमाणेन प्रमित्या चात्मनः परः। समवायो न युज्येत तादात्म्यपरिणामतः॥१७॥ ततो नात्यंतिको भेदः प्रमातुः स्वप्रमाणतः। स्वार्थनिर्णीतरूपायाः प्रमितेश्च फलात्मनः॥१८॥ तथा च युक्तिमत्प्रोक्तं प्रमाणं भावसाधनम्। सतोपि शक्तिभेदस्य पर्यायार्थादनाश्रयात् // 19 // सर्वथा प्रमातुः प्रमितिप्रमाणाभ्यामभेदादेवं तद्विभाग: कल्पितः स्यान्न पुनर्वास्तव इति न मंतव्यं, कथंचिद्भेदोपगमात् / सर्वथा तस्य ताभ्यां भेदादुपचरितं प्रमातुः प्रमितिप्रमाणत्वं न तात्त्विकमित्यपि न मंतव्यं कथंचित्तदभेदस्यापीष्टेः। तथाहि - जिस आत्मा में समवाय सम्बन्ध से प्रमाण कहा गया है, वह प्रमाता है अन्य जिनदत्त या मनुष्य आदि प्रमाता नहीं हैं, इस प्रकार कहना उचित नहीं है क्योंकि उस ज्ञान का शरीर के साथ भी किसी अपेक्षा स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध विद्यमान है ऐसी दशा में वह शरीर ही प्रमाता क्यों नहीं होगा? अर्थात् अवश्य होगा // 15 // इस उक्त कथन से प्रमाण और फल दोनों का सम्बन्धी आत्मा प्रमाता है। यह भी पक्ष दूषित है क्योंकि प्रमिति और काय के भी संयुक्त-समवाय सम्बन्ध सिद्ध है। अर्थात् - काय द्रव्य का आत्मद्रव्य के साथ संयोग है और कायसंयुक्त आत्मा में प्रमिति का समवाय है अतः प्रमिति का सम्बन्ध मानने पर शरीर के प्रमाता बन जाने का निवारण वैशेषिक नहीं कर सकते हैं॥१६॥ अथवा ज्ञानात्मक प्रमाण और प्रमिति के साथ आत्मा का तादात्म्य परिणामरूप सम्बन्ध से भिन्न कोई समवायसम्बन्ध युक्त नहीं है अर्थात् तदात्मक परिणति के अतिरिक्त कोई समवाय सिद्ध नहीं है॥१७॥ प्रमाता का अपने प्रमाण से सर्वथा भेद नहीं है। अपना और अर्थ का निर्णय करना रूप फलस्वरूप प्रमिति का भी प्रमाता के साथ अत्यन्तरूप से भेद नहीं है तथा इसी कथन से भावसाधन प्रमाण को भी युक्ति सहित सिद्ध कर दिया गया है। विद्यमान भी भिन्न-भिन्न शक्तियों का पर्यायार्थिक नय से आश्रय नहीं करने के कारण शुद्धप्रमिति ही प्रमाण हो जाती है। इस प्रकार विवक्षा के वश प्रमाण, प्रमाता, प्रमिति और प्रमेय सब एक हो जाते हैं // 18-19 / / शंका : प्रमिति और प्रमाण के साथ प्रमाता का सर्वथा अभेद मानने पर उनका प्रमिति, प्रमाण और प्रमातारूप से विभाग करना भी कल्पित ही होगा, वास्तविक नहीं ? समाधान : ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि स्याद्वाद में सर्वथा अभेद नहीं माना गया है, अपितु कथंचित् भेद स्वीकार किया गया है अत: प्रमिति, प्रमाण और प्रमाता तीन पृथक्-पृथक् विभाग हैं। शंका : आत्मा का उन प्रमिति और प्रमाण के साथ सर्वथा भेद हो जाने से प्रमाता को ही प्रमितिपना और प्रमाणपना उपचरित है, प्रमाता को प्रमिति या प्रमाण से तदात्मकपना वास्तविक नहीं है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy