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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 2408 परिशिष्ट : श्रुतज्ञान के भेद श्रुतज्ञान दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद वाला है। अङ्ग बाह्य और अङ्ग प्रविष्ट के भेद से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है। अंगबाह्य श्रुत के दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि अनेक भेद हैं। मुख्यता से चौदह प्रकीर्णक के भेद से अंगबाह्य के चौदह भेद हैं। अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं। अंगबाह्य के मुख्य चौदह भेद निम्नलिखित प्रकार हैं - 1. सामायिक - इसमें विस्तार से सामायिक का वर्णन किया गया है। 2. स्तव - इसमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति का वर्णन है। 3. वन्दना - - - इसमें एक तीर्थंकर की स्तुति का कथन है। प्रतिक्रमण इसमें किए हुए दोषों का निराकरण बतलाया है। वैनयिक इसमें चार प्रकार की विनय का वर्णन है। 6. कृतिकर्म इसमें दीक्षा, शिक्षा आदि सत्कर्मों का वर्णन है। 7. दशवैकालिक - इसमें यतियों के आचार का वर्णन है। इसके वृक्ष, कुसुम आदि दश अध्ययन M3 हैं। उत्तराध्ययन इसमें भिक्षुओं के उपसर्ग-सहन के फल का वर्णन किया गया है। कल्पव्यवहार - इसमें यतियों के सेवन करने योग्य विधि का वर्णन और अयोग्य सेवन करने पर प्रायश्चित्त का वर्णन है। 10. कल्पाकल्प - इसमें यतियों और श्रावकों को किस समय क्या करना चाहिए, क्या नहीं, इत्यादि का निरूपण है। 11. महाकल्प - इसमें यतियों की दीक्षा, शिक्षा, भावनात्मक संस्कार, उत्तमार्थ गणपोषण आदि का वर्णन है। 12. पुण्डरीक - इसमें देवपद की प्राप्ति कराने वाले पुण्य का वर्णन है। ' 13. महापुण्डरीक - इसमें देवाङ्गनापद के हेतुभूत पुण्य का वर्णन है। 14. अशीतिका इसमें प्रायश्चित्त का वर्णन है। इन चौदह भेदों को प्रकीर्णक कहते हैं। आचार्यों ने अल्प आयु, अल्पबुद्धि और हीनबलवाले शिष्यों के उपकार के लिए प्रकीर्णकों की रचना की है। वास्तव में, तीर्थंकर परमदेव और सामान्य केवलियों ने जो उपदेश दिया, उसकी गणधर तथा अन्य आचार्यों ने शास्त्र रूप में रचना की और वर्तमान कालवर्ती आचार्य जो रचना करते हैं, वह भी आगम के अनुसार होने से प्रकीर्णकरूप से प्रमाण है; बर्तन या कूप में ग्रहण किए गए क्षीरसमुद्र के नीर के समान। अर्थात् जिस प्रकार घट आदि में भरा हुआ क्षीरसमुद्र का जल क्षीरसमुद्र का ही जल कहलाता है, उसी प्रकार केवलिप्रणीत वचनों का विस्तार करने वाले आचार्यों के वचन केवली के ही वचन कहलाते हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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