________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 407 नामासंसृष्टरूपा हि मतिरेषा प्रकीर्तिता। नातः कश्चिद्विरोधोऽस्ति स्याद्वादामृतभोगिनां // 128 // नामासंसृष्टरूपा प्रतिभा संभववित्तिरभाववित्तिरर्थापत्तिः स्वार्थानुमा च पूर्वं मतिरित्युक्ता। नामसंसृष्टा तु सम्प्रति श्रुतमित्युच्यमाने पूर्वापरविरोधो न स्याद्वादामृतभाजां सम्भाव्यते, तथैव युक्त्यागमानुरोधात्। तदेवं पूर्वोक्तया मत्या सह श्रुतं परोक्षं प्रमाणं सकलमुनीश्वरविश्रुतमुन्मूलितनि:शेषदुर्मतनिकरमिह तत्त्वार्थशास्त्रे समुदीरितमिति परीक्षकाश्चेतसि धारयन्तु स्वप्रज्ञातिशयवशादित्युपसंहरन्नाह। .. इति श्रुतं सर्वमुनीशविश्रुतं / सहोक्तमत्यात्र परोक्षमीरितं।। प्रमाणमुन्मूलितदुर्मतोत्करं। परीक्षकाश्चेतसि धारयन्तु तम्॥१२९॥ इति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे प्रथमस्याध्यायस्य तृतीयमाह्निकम् // नाम के संसर्ग से युक्त होते हुए ये सम्पूर्ण सम्यग्ज्ञान श्रुतज्ञान कह दिए जाते हैं। इस कारण अनेकान्त नीति अनुसार स्याद्वादरूप अमृत का भोग करने वाले जैनों के यहाँ कोई भी विरोध नहीं आता है॥१२८॥ अतः जितने भी नैयायिक आदि के द्वारा स्वीकृत एक दो तीन, चार, पाँच, छह संख्या वाले प्रमाण हैं वे सर्व मति श्रुत इन दो ज्ञानों में ही गर्भित हो जाते हैं। . नाम योजना के संसर्ग से रहित-स्वरूप हो रही प्रतिभा बुद्धि, सम्भववित्ति, अभाववित्ति, अर्थापत्ति, स्वार्थानुमिति, प्रत्यभिज्ञानस्वरूप उपमिति, तर्कमति आदि बुद्धियों को पहिले “मतिस्मृति" आदि सूत्र में मतिज्ञानस्वरूप ऐसा कहा था। और अब वाचक शब्द नामों के संसर्ग से युक्त प्रतिभा आदि बुद्धियों को श्रुतज्ञान कहने पर स्याद्वाद रूपी अमृत का सेवन करने वाले अनेकान्तवादी जैनों के यहाँ इस प्रकार पूर्ववर्ती और पश्चिमवर्ती ग्रन्थ में कोई विरोध दोष सम्भव नहीं है। क्योंकि, उस प्रकार ही युक्ति और आगम के अनुरोध से निर्णीत है। अर्थात् प्रतिभा, सम्भव आदिक ज्ञान शब्दयोजना नहीं कर देने पर मतिज्ञान हैं, और शब्दयोजना के साथ प्रतिभा आदि ज्ञान श्रुत हैं। अत: इस प्रकार पूर्व में कही गई मति के साथ यह इस सूत्र में कहा गया श्रुतज्ञान-ये दोनों अविशद प्रकाशी होने से परोक्ष प्रमाण हैं। यह सिद्धान्त सम्पूर्ण मुनिवरों के सिद्धान्त में प्रसिद्ध है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के भेद-प्रभेदों की सिद्धि हो जाने से सम्पूर्ण प्रतिवादियों के दूषित मतों का समुदाय निराकृत कर दिया है। ऐसे परोक्ष प्रमाण का “आद्ये परोक्षम्” और “मतिः स्मृतिः संज्ञा चिंता” - यहाँ से लेकर “श्रुतं मतिपूर्वं व्यनेकद्वादशभेदम्' यहाँ तक “तत्त्वार्थ सूत्र" में श्री उमास्वामी ने निरूपण किया है। परीक्षक जन इस बात को अपनी दूरगामिनी प्रज्ञा बुद्धि के चमत्कार की अधीनता से चित्त में धारण करें। तीसरे आह्निक के अन्त में इसी बात का उपसंहार, संकोच करते हुए श्री विद्यानंद आचार्य आशीर्वादात्मक वचन कहते हैं - प्रामाणिक सम्पूर्ण ऋषीश्वरों में प्रख्यात श्रुतज्ञान को यहाँ तत्त्वार्थ सूत्र में मतिज्ञान के साथ रखते हुए दोनों ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं; इस प्रकार युक्ति और आगम के अनुसार श्री उमास्वामी ने कथन किया है। तथा मति और श्रुत इन दो परोक्ष प्रमाणों से शब्दाद्वैतवादी आदि विद्वानों के दूषित मतों के समुदाय को लीला मंत्र से उखाड़कर फेंक दिया है अतः हम परीक्षकों को साग्रह सूचना देते हैं कि वे ऐसे प्रमाण प्रसिद्ध उस परोक्ष प्रमाण को चित्त में निर्धारण करें जिससे कि अज्ञान अंधकार का विनाश होकर ज्ञान सूर्य का उदय हो॥१२९॥ इस प्रकार श्लोकवार्तिकालङ्कार ग्रन्थ में प्रथम अध्याय का तीसरे प्रकरणों का समुदाय स्वरूप आह्निक पूर्ण हुआ॥