SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *406 अत्यन्ताभ्यासादाशु प्रतिपत्तिरशब्दजा कूटद्रुमादावकृताभ्यासस्याशुप्रवृत्तिः प्रतिभा परैः प्रोक्ता। सा न श्रुतं, सादृश्यप्रत्यभिज्ञानरूपत्वात्तस्यास्तयोः पूर्वोत्तरयोर्हि दृष्टदृश्यमानयोः कूद्रुमयोः सादृश्यप्रत्यभिज्ञा झटित्येकतां परामृषन्ती तदेवेत्युपजायते। सा च मतिरेव निश्चितेत्याह;"सोऽयं कूट इति प्राच्यौदीच्यदृष्टेक्षमाणयोः। सादृश्ये प्रत्यभिज्ञेयं मतिरेव हि निश्चिता // 126 // शब्दानुयोजनात्त्वेषां श्रुतमस्त्वक्षवित्तिवत् / संभवाभावसंवित्तिरपत्तिस्तथानुमा // 127 // किन्हीं ने कहा कि अत्यन्त अभ्यास हो जाने से कृषकजनों को पलालकूट, वृक्ष आदि में शब्द बोले बिना ही जो उनकी शीघ्र प्रतिपत्ति हो जाती है, तथा प्रवृत्ति का अभ्यास नहीं होने पर भी पुरुष को झटिति, कूट वृक्ष, जल आदि में उस प्रतिभा के अनुसार प्रवृत्ति होती है, वह प्रतिभा है। जैनाचार्य कहते हैं कि जो यह अनभ्यासी पुरुष की प्रतिभा है, वह श्रुत नहीं है। क्योंकि, वह प्रतिपत्ति तो सादृश्य प्रत्यभिज्ञानरूप होने के कारण मतिज्ञानस्वरूप है। पहिले कहीं देखे हुए और बीच में अभ्यास छूट जाने पर भी नवीन देखे जा. रहे कूट, द्रुम आदि में सादृश्यप्रत्यभिज्ञानस्वरूप प्रतिभा द्वारा प्रवृत्ति हो जाती है। पहिले कहीं देख लिए गए और अब उत्तरकाल में देखे जा रहे कूट, वृक्ष आदि के एकपन का परामर्श कराती हुई “यह वही है" इस प्रकार सादृश्य प्रत्यभिज्ञा उत्पन्न होती है। वह मतिज्ञान ही निश्चित है। कोई-कोई प्रतिभा अनुमान-मतिज्ञान स्वरूप भी हो जाती है अतः प्रतिभा का मति के भेदों में या श्रुत में अन्तर्भाव हो जाता है। उसी को आचार्य कहते हैं - ___“यह वही कूट है" इस प्रकार पूर्वकालवर्ती देखे गए और उत्तरकालवर्ती देखे जा रहे एक पदार्थ में होने वाली मति प्रतिभा एकत्व प्रत्यभिज्ञानस्वरूप है। तथा, पूर्वकाल में देखे गए कूट के सदृश दूसरे कूट के वर्तमान काल में देखने पर सादृश्य विषय में होने वाली यह प्रतिभा सादृश्य प्रत्यभिज्ञानस्वरूप मतिज्ञान है। किन्तु, शब्द की अनुयोजना से उत्पन्न हुई यह प्रतिभा श्रुतज्ञान है। ऐसा समझना चाहिए। जैसे इन्द्रियों से उत्पन्न हुए मतिज्ञान भी यदि शब्द की योजना से प्ररूपित किए जाते हैं तो वे श्रुतज्ञान हो जाते हैं, उसी प्रकार सम्भवप्रमाण, अभाव सम्वेदन, अर्थापत्ति प्रमाण तथा अनुमान प्रमाण भी समझ लेना चाहिए। भावार्थ : आज अष्टमी है तो कल नवमी अवश्य होगी, इत्यादि ज्ञान सम्भव प्रमाण है। तथा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति इन पाँच प्रमाणों के द्वारा वस्तु का सद्भाव नहीं गृहीत होने पर पुनः जिस प्रमाण से उस प्रतियोगी वस्तु का अभाव साध दिया जाता है, वह अभाव प्रमाण है। अभाव के आधारभूत वस्तु का ग्रहण कर और प्रतियोगी का स्मरण कर इन्द्रियों की अपेक्षा बिना ही मन से नास्तित्व का ज्ञान हो जाता है। छह प्रमाणों से जान लिया गया अर्थ जिस पदार्थ के बिना नहीं हो सके, उस अदृष्ट अर्थ की कल्पना कराने वाले ज्ञान को अर्थापत्ति कहते हैं। अग्नि के कार्य दाह को प्रत्यक्ष जानकर अग्नि में दहनशक्ति का प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्ति से ज्ञान कर लिया जाता है तथा अविनाभावी हेतु से साध्य का ज्ञान होना अनुमान प्रमाण माना गया है। सम्भव, अभाव, अर्थापत्ति, अनुमान, इतिहास, उपमान आदि को विद्वानों ने पृथक्-पृथक् स्वतंत्र प्रमाण माना है। किन्तु ये सब शब्दयोजना से रहित होते हुए मतिज्ञान माने गए हैं / / 126-127 //
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy