________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 403 स्थविष्ठज्ञानं पर्वादिषु महत्त्वज्ञानं स्ववंशादिषु दविष्ठज्ञानं चन्द्रार्कादिष्वल्पत्वज्ञानं सर्षपादिषु, लघुत्वज्ञानं तूलादिषु, प्रत्यासन्नज्ञानं स्वगृहादिषु, संस्थानज्ञानं त्र्यस्त्यादिषु, वक्रादिज्ञानं च क्वचित्प्रमाणांतरमायातं / परोपदिष्टोत्तराधर्यादिवाक्याहितसंस्कारस्य विनेयजनस्य पुनरौत्तराधर्यदर्शनादिदं तदौत्तराधर्यादीति संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तेस्तत्फलस्य भावान्न हि संख्याज्ञानादि प्रत्यक्षमिति युक्तं वाक् , परोपदेशापेक्षाविरहप्रसंगात् रूपादिज्ञानवत्, परोपदेशविनिर्मुक्तं प्रत्यक्षमित्यत्र सतां संप्रतिपत्तेः। यदि पुन: संख्यादिविषयज्ञानं प्रत्यक्षमपरोपदेशमेव तत्संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तेरेव परोपदेशापेक्षानुभवादिति मतं तदा सैव संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिः प्रमाणान्तरमस्तु, विनोपमानवाक्येन भावादुपमानेऽन्तर्भावितुमशक्यत्वात् / ननु तथा सोषान, नसैनी आदि में ऊपर नीचेपन का ज्ञान, पंवोली आदि में अधिक स्थूलपन का ज्ञान, स्वकीय घर के बाँस आदि में महान्पन का ज्ञान तथा चन्द्रमा, सूर्य आदि में बहुत दूरपने का ज्ञान एवं सरसों तिल आदि में अल्पपने का ज्ञान और रुई आदि में हल्केपन का ज्ञान, अपने गृह आदि में निकटवर्तीपने का ज्ञान और तिकोने, चौकोने आदि आकार वाले पदार्थों में टेढ़ेपन, सूधेपन आदि संस्थान ज्ञान पृथक्-पृथक् प्रमाण हो जायेंगे। .. अज्ञात पुरुष को किसी हितैषी ने उपदेश के द्वारा सोपान का ज्ञान कराया कि अमुक सीढ़ी ऊँची है, अमुक सीढ़ी नीची है, इत्यादि वाक्यों के आधान रख कर विनीत पुरुष को फिर ऊपर और अधर धर्मवाले पदार्थ का दर्शन हो जाने से, यह वही उत्तरपना और अधरपना आदि है। इस प्रकार उस उपमान के संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध प्रतिपत्तिरूप फल का सद्भाव है। अतः इनका कौनसे प्रमाण में अन्तर्भाव करोगे? संख्याज्ञान, स्थूलधन का ज्ञान, आदिक ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण है, ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि इनको प्रत्यक्ष ज्ञान में गर्भित करने पर उक्त ज्ञानों में परोपदेश की अपेक्षा रखने के अभाव का प्रसंग आएगा। जैसे कि रूप, रस आदि के प्रत्यक्षज्ञान अन्य के उपदेशों की अपेक्षा की अपेक्षा नहीं रखते हैं। सम्पूर्ण प्रत्यक्ष प्रमाण परोपदेशों की अपेक्षा से सर्वथा रहित है। इस प्रसिद्ध सिद्धान्त में सम्पूर्ण सज्जन विद्वानों को प्रतिपत्ति है। किन्तु संख्या के ज्ञान करने में गणितशास्त्रों के करणसूत्र की आकांक्षा हो रही है। यह बाँस की पंवोली स्थूल है, यह बाँस लंबा है, सरसों छोटी है, इत्यादि ज्ञानों में परोपदेशों की अपेक्षा है। अतः ये उक्तज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकते हैं। यदि फिर संख्या, स्थूलता आदि को विषय करने वाले ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण ही हैं, इनमें परोपदेश की कोई अपेक्षा नहीं है, उनके संज्ञा संज्ञी सम्बन्ध की प्रतिपत्ति को ही परोपदेश की अपेक्षा रखने का अनुभव हो रहा है। ऐसा मानते हो तो उस संज्ञा और संज्ञा वाले अर्थों के सम्बन्ध की ज्ञप्ति होना ही पृथक् प्रमाण जानना चाहिए। उपमान वाक्य के बिना ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए उपमान प्रमाण में अन्तर्भाव करना शक्य ' नहीं है।