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________________ .. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 2402 तदोपमानतः सैतत् प्रमाणान्तरमस्तु वः। नोपमानार्थता तस्यास्तद्वाक्येन विनोद्भवात् // 123 // . आगमत्वं पुन: सिद्धमुपमानं श्रुतं यथा। सिंहासने स्थितो राजेत्यादिशब्दोत्थवेदनं // 124 // प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानं, गौरिव गवय इति ज्ञानं / तथा वैधाद् योऽगवयो महिषादिः स न गौरिवेति ज्ञानं। साधर्म्यवैधाभ्यां संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थः। अयं स गवयशब्दवाच्यः पिंड, इति सोऽयं महिषादिरगवयशब्दवाच्य इति वा। साधर्म्यवैधोपमानवाक्यादिसंस्कारस्य प्रतिपाद्यस्योपजायते। इति द्वेधोपमानं शब्दात्प्रमाणान्तरं ये समाचक्षते तेषां द्व्यादिसंख्याज्ञानं प्रमाणान्तरं, गणितज्ञसंख्यावाक्याहितसंस्कारस्य प्रतिपाद्यस्य पुनर्व्यादिषु संख्याविशिष्टद्रव्यदर्शनादेतानि द्रव्यादीनि तानीति संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिादिसंख्याज्ञानप्रमाणफलमिति प्रतिपत्तव्यं / तथोत्तराधर्यज्ञानं सोपानादिषु आदि का ज्ञान तो परोपदेश की अपेक्षा नहीं करता है अतः संख्या आदि का विषय करने वाला वह ज्ञान प्रत्यक्ष ही है। इस प्रकार नैयायिक के कहने पर तो उपमान प्रमाण से अतिरिक्त वह सम्बन्ध की प्रतिपत्ति / ही तुम नैयायिकों के प्रमाणान्तर हो जाती है। क्योंकि उस उपमान वाक्य के बिना ही उस सम्बन्ध प्रतिपत्ति की उत्पत्ति हो जाती है। अत: उपमान प्रमाण में उसका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है॥१२२-१२३॥ स्थूलत्व आदि के ज्ञानों को जिस प्रकार आगमपना सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार उपमान प्रमाण को भी श्रुतज्ञान जानना चाहिए। सिंहासन पर स्थित को राजा और बाँये ओर छोटे आसन पर बैठे हुए को मंत्री समझना, इत्यादिक आप्त शब्दों को सुनकर पुन: राजसभा में जाकर उन शब्दों के संस्कार से उत्पन्न हुए उन-उन व्यक्तियों में राजा, मंत्री आदि के ज्ञान को जिस प्रकार श्रुतपना है, उसी प्रकार उपमान को भी श्रुतपना सिद्ध है अतः अर्थान्तर की प्रतिपत्ति करने वाले उपमान या प्रत्यभिज्ञान सभी श्रुतज्ञान ही हैं / / 124 // - प्रसिद्ध पदार्थ के साधर्म्य से अप्रसिद्ध साध्य को साधना उपमान प्रमाण है, जैसे कि गौ के सदृश गवय होता है, तथा प्रसिद्ध पदार्थ के विलक्षण धर्मसहित से अप्रसिद्ध साध्य का साधना उपमान है। जैसे कि गौ या गोसदृश गवय से भिन्न भैंसा आदि पशु हैं। वे गौ के सदृश नहीं हैं, यह ज्ञान भी उपमान है। साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा संज्ञा और संज्ञी के सम्बन्ध की प्रतिपत्ति हो जाना उपमान प्रमाण के लिए है। जैसे यह वह पशुपिंड ही गवयपद का वाच्य है। अथवा ये अंगुलीनिर्दिष्ट भैंसा आदि पशु उस गवय शब्द के वाच्य नहीं हैं। प्रसिद्ध पदार्थ के समान धर्म अथवा विलक्षण धर्म सहितपने की उपमा को कहने वाले वाक्य, संकेत, चित्रदर्शन आदि का अनुभव कर पुनः भावना संस्कार रखने वाले प्रतिपाद्य के उपमान ज्ञान उत्पन्न होता है। ___ इस प्रकार जो दो प्रकार के उपमान को शब्द प्रमाण से पृथक् प्रमाण कहते हैं, उनके यहाँ दो आदि संख्याओं का ज्ञान भी अलग प्रमाण हो जाएगा। गणित विद्या को जानने वाले विद्वान् के द्वारा कहे गये संख्याओं के वाक्यों के संस्कार धारक प्रतिपाद्य को पुन: दो आदि संख्या वाले नवीन स्थलों पर वैसी संख्याओं से विशिष्ट द्रव्यों को देखने से ये पन्द्रह छक्का नब्बे रुपये हैं, इत्यादि उसी प्रकार पहिले देखे हुए उन दो आदि संख्याओं के समान हैं। इस प्रकार संज्ञा संज्ञियों के सम्बन्ध की प्रतिपत्ति हो जाती है। वह दो आदि संख्याओं का ज्ञानस्वरूप प्रमाण का फल है, ऐसा समझना चाहिए।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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