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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 401 कृताभिदेशवाच्याभिः संस्कारस्य क्वचित्पुनः / संवित्प्रसिद्धसाधर्म्यात्तथा वाचकयोजिता // 117 // प्रकाशितोपमा कैश्चित्सा श्रुतान्न विभिद्यते। शब्दानुयोजनात्तस्याः प्रसिद्धागमवित्तिवत् // 118 // प्रमाणान्तरतायान्तु प्रमाणनियमः कुतः। संख्या संवेदनादीनां प्रमाणांतरता स्थितौ // 119 // प्रत्यक्षं व्यादिविज्ञानमुत्तराधर्यवेदिनं / स्थविष्ठोरुदविष्ठाल्पलघ्वासन्नादिविच्च चेत् // 120 // नोपदेशमपेक्षेत जातु रूपादिवित्तिवत् / परोपदेशनिर्मुक्तं प्रत्यक्षं हि सतां मतं // 121 // तत्संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिरपेक्षते। परोपदेशमध्यक्षं संख्यादिविषयं यदि // 122 // शब्द की अनुयोजना से ही श्रुत होता है, अथवा श्रुत ही शब्द की अनुयोजना से होता है। इसका विचार कर अब नैयायिकों द्वारा पृथक् प्रमाण माने गए उपमान के अन्तर्भाव का आचार्य स्पष्ट व्याख्यान करते हुए कहते हैं - गौ. के सदृश गवय होता है। इस अतिदेश वाक्य के द्वारा भावना नामक संस्कार वाले पुरुष को फिर कहीं रोझ व्यक्ति में प्रसिद्ध गौ के समान धर्मपने से तिस प्रकार “यह गवय है।" इस प्रकार गवय वाचक शब्द की योजनापूर्वक जो ज्ञान होता है, वह किन्हीं नैयायिकों के द्वारा उपमान प्रमाण माना गया है। किन्तु “यह गवयषद से वाच्य है" इस प्रकार की वह उपमा तो श्रुत से विभिन्न नहीं है क्योंकि उस उपमिति के शब्द की अनुयोजना है। जैसे कि अन्य प्रसिद्ध शब्दानुयोगी आगमज्ञान इस श्रुत से भिन्न नहीं है। .. भावार्थ : श्रुत में ही उपमानप्रेमाण गर्भित हो जाता है। "श्रुतं शब्दानुयोजनात्' यह लक्षण यहाँ घटित हो जाता है॥११७-११८॥ यदि उपमान प्रमाण को नियत प्रमाणों से पृथक् प्रमाणपना माना जायेगा तब तो प्रमाणों का नियम कैसे हो सकेगा? संख्या के ज्ञान आदि को भी अलग प्रमाण मानने की व्यवस्था करने का प्रसंग आएगा। भावार्थ : एक रुपये के 25 आम आनेपर चार रुपये के सौ आम आते हैं। इस प्रकार अतिदेश वाक्य स्मरण करके मानव परिमित पदार्थों का गणित लगा लेता है। रेखागणित के नियमानुसार विष्कम्भ के वर्ग को दश गुना करके उसका वर्गमूल निकालने पर परिधि निकल आती हैं, ऐसा स्मरण होता है। इस ज्ञान को भी प्रमाणान्तर मानना पड़ेगा। परन्तु यह पृथक् ज्ञान नहीं है॥११९॥ . यदि नैयायिक दो, दश आदि संख्याओं के अथवा ऊपर नीचेपन के तथा अतिस्थूलपन मोटापन, अधिकदूरपन, अल्पपन, लघुपन, निकटवर्तीपन आदि के ज्ञानों को प्रत्यक्ष प्रमाणरूप मानेंगे, तब तो उक्त कहे हुए ज्ञान कभी भी उपदेश की अपेक्षा नहीं करेंगे, जैसे कि रूप, रस आदि के प्रत्यक्ष ज्ञानों को अन्य के उपदेश की अपेक्षा नहीं है। सर्व विद्वान् इस प्रत्यक्षज्ञान को परोपदेशरहित मानते हैं॥१२०-१२१॥ ... गाय के समान ही गवय होता है, इस अर्थ की वाचक गवय संज्ञा है और यह रोझ व्यक्ति गवय संज्ञावान है। इस प्रकार संज्ञा और संज्ञी के सम्बन्ध की प्रतिपत्ति ही परोपदेश की अपेक्षा करती है। संख्या
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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