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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *400 वैखर्या:कारणं / वर्णत्वपरिग्रहस्तु लक्षणं / स च श्रोत्रग्राह्यत्वपरिणाम एव / इति न किश्चिदनिष्टं / तथा केवला बुद्धिर्वक्तृ प्राणवृत्त्यतिक्र मश्च मध्यमायाः कारणं तु लक्षणं क्र मरूपानुपातित्वमेव च तत्र श्रोत्रग्रहणयोग्यत्वाविरुद्धमिति न निराक्रियते। पश्यन्त्याः सर्वतः संहतक्रमत्वमविभागत्वंच लक्षणं / तच्च यदि सर्वथा तदा प्रमाणविरोधो, वाच्यवाचकविकल्पक्रमविभागयोस्तत्र प्रतिभासनात्। कथंचित्तु संहृतक्रमत्वमविभागत्वं च तत्रेष्टमेव, युगपदुपयुक्तश्रुतविकल्पानामसम्भवाद्वर्णादिविभागाभावाच्चानुपयुक्तश्रुतविकल्पस्येति। तस्य विकल्पात्मकत्वलक्षणानतिक्रम एव / सूक्ष्माया: पुनरन्तःप्रकाशमानस्वरूपज्योतिर्लक्षणत्वं कथंचिन्नित्यत्वं च नित्योद्घाटितान्निरावरणलब्ध्यक्षरज्ञानाच्छक्तिरूपाच्च चित्सामान्यान्न विशिष्यते / सर्वथा नित्याद्वयरूपत्वं तु प्रमाणविरुद्धस्य वेदितप्रायम्। इत्यलं प्रपंचेन “श्रुतं शब्दानुयोजनादेव” इत्यवधारणस्याकलंकाभिप्रेतस्य कदाचिद्विरोधाभावात् ; तथा संप्रदायस्याविच्छे दाद्युक्त्यनुग्रहाच्च सर्वमतिपूर्वकस्यापि श्रुतस्याक्षरज्ञानत्वव्यवस्थितेः। अत्रोपमानस्यान्तर्भाव विभावयन्नाहः शब्दाद्वैतवादियों ने पश्यन्ती का लक्षण क्रमों का संहार किया जाना और विभाग रहितपना किया है। परन्तु वाणियों में वह क्रम का संहार और अविभागत्व यदि सर्वथा रूप से माना जाता है, तब तो प्रमाणों से विरुद्ध है. क्योंकि उन शब्दों में विकल्पज्ञान के अनसार वाच्य और वाचकों का क्रम तथा वर्ण. पद आदि के विभागों का प्रतिभास हो रहा है। संहृत, क्रमपना और विभागरहितपना यदि कथंचिद् माना जाता तब तो हमें भी वहाँ शब्द में इष्ट ही है। उपयोग को प्राप्त श्रुत के अनेक विकल्पों का एक ही समय में होना असम्भव है तथा वाच्य वाचक के क्रम के विभाग की भी असम्भवता है किन्तु श्रुत के विकल्पों का उपयोगरूप परिणाम आत्मा में नहीं है। उस अनुपयुक्त हो रहे श्रुत के विकल्प के वर्ण, पद, पंक्ति आदि का विभाग उस समय नहीं है। अतः उस पश्यन्ती वाणी के विकल्पस्वरूपपने लक्षण का जैनाचार्य द्वारा स्वीकृत भाववाणी से अतिक्रमण कैसे भी नहीं हो पाता है। कथंचित् लक्षण ऐक्य ही है और कथञ्चित् भिन्न है। सूक्ष्मा का अन्तःप्रकाशमान ज्योतिःस्वरूप लक्षण भी कथंचित् नित्य उद्घाटित केवलज्ञान के समान निरावरण तथा क्षयोपशमलब्धि से अविनाशी, ऐसे सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के शक्तिरूप चैतन्य सामान्य से अथवा अन्य क्षयोपशमिक शक्तिरूप लब्धियों की अपेक्षा सूक्ष्मा में कोई विशेषता नहीं है परन्तु सर्वथा उस सूक्ष्मावाणी को नित्य और अद्वैतस्वरूप मानना प्रमाणविरुद्ध है। इस बात को हम बहुत बार निवेदित कर चुके हैं अतः यहाँ अधिक विस्तार करने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। ___ "शब्द की अनुयोजना से ही श्रुत होता है।" इस प्रकार श्री अकलंकदेव को अभिप्रेत अवधारणा का कभी भी विरोध नहीं होता है अर्थात् विरोध का अभाव है। आम्नायों की विच्छित्ति नहीं होने से और युक्तियों का अनुग्रह हो जाने से भी सम्पूर्ण मतिज्ञानों को पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न हुए श्रुत को अक्षरज्ञानपना व्यवस्थित है। यानी भाव शब्दों की योजना कर देने से ही वे श्रुत हो सकते हैं। श्रोत्र से अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से जन्य मतिज्ञान द्वारा हुए अर्थान्तर के ज्ञान में या अवाच्य श्रुतज्ञान में अथवा अन्य श्रुतों में भी भाववाक्प चैतन्य शब्दों की योजना कर देने से ही श्रुतपना व्यवस्थित हो सकता है, अन्यथा नहीं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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