________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 399 क्रमरूपानुपातिनी। प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्त्तते' इति वचनात्। पश्यन्ती पुनरविभागा सर्वतः संहतक्रमा प्रत्येया। सूक्ष्मात्र स्वरूपज्योतिरेवान्तरवभासिनी नित्यावगन्तव्या। “अविभागानुपश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमा। स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागवभासिनी। 1 / " इति वचनात् / ततो न स्याद्वादिनां कल्पयितुं युक्ताश्चतस्रोऽवस्थाः श्रुतस्य वैखर्यादयस्तदनिष्टलक्षणत्वादिति केचित्। तेऽपि न प्रातीतिकोक्तयः। वैखर्या मध्यमायाश्च श्रोत्रग्राह्यत्वलक्षणानतिक्रमात्। स्थानेषु विवृतो हि वायुर्वक्तृणां प्राणवृत्तिश्च वर्णत्वं परिगृह्णत्या है। फिर तीसरी पश्यन्ती वाणी तो विभाग रहित होती हुई सब ओर से वर्ण, पद आदि के क्रम का संकोच करती हुई समझनी चाहिए, और यहाँ चौथा सूक्ष्मवाक् तो शब्द ब्रह्मस्वरूप की ज्योति ही है। वह सूक्ष्मा अन्तरंग में सदा प्रकाशित नित्य समझनी चाहिए। इन दोनों वाणियों के लिए हमारे ग्रन्थों में इस प्रकार कथन है कि जिसमें सब ओर से क्रम का उपसंहार किया जा चुका है, और विभाग भी जिसमें नहीं है, वह तो पश्यन्ती है। अर्थात् अकार; ककार आदि वर्ण के विभाग रहित और वर्णपदों के बोलने के क्रम से रहित पश्यन्ती है, और शब्द ज्योतिस्वरूप ही सूक्ष्मावाणी है, जो अन्तरङ्ग में प्रकाश कर रही है। परन्तु स्याद्वादियों ने ऐसी द्रव्यवाक् भाववाक् नहीं मानी है अतः स्याद्वादियों के यहाँ श्रुत की वैखरी, मध्यमा आदिक चार अवस्थायें कल्पना करने के लिए किया गया परिश्रम समुचित नहीं है, क्योंकि जैनों के माने हुए वचनों के वे लक्षण हम शब्दाद्वैतवादियों को इष्ट नहीं हैं। इस प्रकार कोई (शब्दानुविद्धवादी) कह रहे हैं। अब आचार्य उनकी शंका का उत्तर देते हैं कि वे विद्वान् भी प्रतीतियों से युक्त कथन करने वाले नहीं हैं, क्योंकि वैखरी और मध्यमा श्रोत्र से ग्रहण करने की योग्यता का उल्लंघन नहीं कर रही हैं। अर्थात् शब्दाद्वैतवादी ने भी इन वाणियों की श्रोत्रग्राह्यता स्वीकार की है और स्याद्वादियों के यहाँ पर्यायरूप द्रव्यवाक् भी कर्ण इन्द्रिय से ग्राह्य मानी गई है अतः कर्ण इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्यपना, इस लक्षण का उल्लंघन नहीं हुआ है। तथा तालु आदि स्थानों में फैल रही वायु और वक्ताओं की श्वासोच्छ्वास प्रवृत्ति ही वर्णपने को परिग्रहण करने वाली वैखरी वाणी के कारण माने हैं। वैखरी का लक्षण वर्णपने का परिग्रह कर लेना है और वह तो कान इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य हो जानापनस्वरूप परिणति ही है। जगत् में फैली हुई भाषावर्गणायें या शब्दयोग्यवर्गणायें पहिले कानों से सुनने योग्य नहीं थीं, अक्षरपद या ध्वनिरूप पर्याय रूप होने पर भी वे कानों से सुनने योग्य हो जाती हैं। ऐसा मानना किसी को भी अनिष्ट नहीं है। अर्थात् हमारी श्रोत्र से ग्राह्य हो रही पर्यायवाणी और तुम्हारी वैखरीवाणी समान ही है। तथा केवल बुद्धि को ही मध्यमा की उपादान कारण तुमने मानी है और वक्ता की प्राणवृत्तियों का अतिक्रमण करना तो मध्यमा का निमित्त कारण माना गया है तथा वर्ण, पद आदि के क्रम से अपने स्वरूप का अनुगम करना ही यह मध्यमा का लक्षण भी श्रोत्र द्वारा ग्रहण करने योग्यपन से विरुद्ध नहीं पड़ता है अतः मध्यमा का निराकरण नहीं किया जाता है। स्याद्वादियों के यहाँ पर्यायरूप अन्तर्जल्पस्वरूप शब्द कानों से सुनने योग्य माने गये हैं।