________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 35 ननु प्रमीयते येन प्रमाणं तदितीरणम् / प्रमाणलक्षणस्य स्यादिद्रियादेः प्रमाणता // 3 // तत्साधकतमत्वस्याविशेषात्तावता स्थितिः। प्रामाण्यस्यान्यथा ज्ञानं प्रमाणं सकलं न किम् // 4 // इंद्रियादिप्रमाणमिति साधकतमत्वात्सुप्रतीतौ विशेषण ज्ञानवत् यत्पुनरप्रमाणं तन्न साधकतमं यथा प्रमेयमचेतनं चेतनं वा शशधरद्वयविज्ञानमिति प्रमाणत्वेन साधकतमत्वं व्याप्तं न पुनर्ज्ञानत्वमज्ञानत्वं वा तयोः सद्भावेपि प्रमाणत्वानिश्चयादिति कश्चित्॥ / तत्रेदं चिंत्यते तावदिंद्रियं किमु भौतिकम्। चेतनं वा प्रमेयस्य परिच्छित्तौ प्रवर्तते // 5 // न तावद्भौतिकं तस्याचेतनत्वाद् घटादिवत् / मृतद्रव्येंद्रियस्यापि तत्र वृत्तिप्रसंगतः॥६॥ प्रमिति प्रमाण है, ऐसे सर्वथा एकान्त का खण्डन एवं कथंचित् प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति और प्रमाता के एकपने की सिद्धि : शंका : जिससे प्रमा की जाय वह प्रमाण है, जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं उसको प्रमाण कहते हैं, ऐसा लक्षण करना उपयुक्त है, जिससे इन्द्रिय, सन्निकर्ष आदि का प्रमाणपना सिद्ध हो जाता है। ज्ञान के समान इन्द्रिय आदि के भी उस ज्ञप्तिक्रिया का प्रकृष्ट उपकारक रूप साधकतमपना अविशेष रूप से अवस्थित है। प्रमिति के साधकतमपने से ही प्रमाणपने की स्थिति है; उस से ही प्रमाण लक्षण की परिपूर्णता हो जाती है। अन्यथा प्रमाण के लक्षण में यदि ज्ञान को रख दिया जायेगा तो सभी संशय आदि ज्ञान भी क्यों नहीं प्रमाण होंगे ? अर्थात्-सकलज्ञान प्रमाण हो जायेंगे // 3-4 // इन्द्रिय, सन्निकर्ष आदि प्रमाण हैं। समीचीन प्रतीति करने में प्रकृष्ट उपकारक होने से, जैसे कि विशेषण का ज्ञान विशेष्य की प्रमिति कराने में साधकतम हो जाने से प्रमाण माना गया है। जो प्रमाण नहीं है, वह प्रमा का साधकतम भी नहीं है। जैसे घट आदि जड़ प्रमेय है। अथवा एक चन्द्रमा में चन्द्रद्वय का ज्ञान चेतन होता हुआ भी प्रमाण नहीं है। इस प्रकार प्रमाणपने से प्रमिति का साधकतमपना व्याप्त है, किन्तु ज्ञानपना अथवा अज्ञानपना व्याप्त नहीं है क्योंकि उनके विद्यमान होने पर भी प्रमाणपने का निश्चय नहीं होता है अर्थात् संशय, विपर्यय ये ज्ञान तो हैं, किन्तु प्रमाण नहीं हैं और जड़ घट, पट आदि अज्ञानरूप भी किसी के द्वारा प्रमाण नहीं माने गये हैं। ऐसा कोई प्रतिवादी कह रहा है। ___समाधान : यहाँ पर जैनाचार्य इसका विचार करते हैं कि पौद्गलिक इन्द्रियाँ प्रमेय की परिच्छित्ति करने में प्रवर्त्त होती हैं अथवा आत्मा का परिणामरूप चेतन इन्द्रियाँ प्रमेय की परिच्छित्ति में साधकतम हैं? प्रथमपक्ष के अनुसार पौद्गलिक चक्षु आदि इन्द्रियाँ तो प्रमा की करण नहीं हैं। क्योंकि वे पट आदि जड़ पदार्थों के समान अचेतन हैं। (अचेतन पदार्थ तो परिच्छित्ति का करण नहीं हो सकता है।) अन्यथा मृतपुरुष की जड़द्रव्यस्वरूप इन्द्रियों को भी परिच्छित्ति के कराने में प्रवृत्त होने का प्रसंग आयेगा // 5-6 / /