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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 34 तत्प्रमाणे॥१०॥ कुतः पुनरिदमभिधीयते - स्वरूपसंख्ययोः केचित्प्रमाणस्य विवादिनः। तत्प्रत्याह समासेन विदधत्तद्विनिश्चयम् // 1 // तदेव ज्ञानमास्थेयं प्रमाणं नेंद्रियादिकम्। प्रमाणे एव तद् ज्ञानं नैकत्र्यादिप्रमाणवित् // 2 // प्रमाणं हि संख्यावनिर्दिष्टमत्र तत्त्वसंख्यावद्विवचनान्त प्रयोगात्। तत्र तदेव मत्यादिपंचभेदं सम्यग्ज्ञानं प्रमाणमित्येकं वाक्यमिंद्रियाद्यचेतनव्यवच्छेदेन प्रमाणस्वरूपनिरूपणपरं। तन्मत्यादिज्ञानं पंचविधं प्रमाणे एवेति द्वितीयमेकत्र्यादिसंख्यांतरव्यवच्छे देन संख्याविशेषव्यवस्थापनप्रधानमित्यतः सूत्रात्प्रमाणस्य स्वरूपसंख्याविवादनिराकरणपुर:सरनिश्चयविधानात् इदमभिधीयत एव // इस प्रकार श्री उमा स्वामी आचार्य उन ज्ञानों के विधेय अंश को दिखलाने के लिए सूत्र कहते हैं - वे पाँच प्रकार के ज्ञान ही प्रमाण हैं॥१०॥ यह सूत्र किस कारण कहा जा रहा है? ऐसी जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं। प्रमाण के स्वरूप और संख्या में कोई प्रतिवादी विवाद कर रहे हैं, उनके प्रति उस प्रमाण के स्वरूप और संख्या का संक्षेप से विशेष निश्चय कराने के लिए आचार्य उमा स्वामी ने 'तत्प्रमाणे' सूत्र का कथन किया है अर्थात् तत् शब्द से पाँच समीचीन ज्ञान ही प्रमाण हैं। यह तो प्रमाण का लक्षण है और ‘प्रमाणे' इस द्विवचन से प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्षरूप है, यह प्रमाण की संख्या का निर्णय है। इस प्रकार एवकार लगाने से इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि प्रमाण नहीं हैं, यह विश्वास कर लेना चाहिए तथा यह भी कि वे ज्ञान दो ही प्रमाणरूप हैं। एक, तीन, चार आदि प्रमाणों के न होने की संवित्ति कर लेना चाहिए // 1-2 // अर्थात् इस सूत्र में यह सूचित किया है कि ज्ञान ही प्रमाण है, सन्निकर्ष आदि प्रमाण नहीं है और उस ज्ञान के दो भेद हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष। इस सूत्र में तत्त्वों की संख्या के समान संख्या वाले प्रमाण का कथन किया है। (क्योंकि नपुंसक लिंग में प्रमाणशब्द का प्रथमा के द्विवचन औ' विभक्ति को अन्त में लगाए हुए प्रमाण पद का प्रयोग किया गया है) वही मति आदि पाँच भेद वाले सम्यग्ज्ञान प्रमाण हैं। इस प्रकार पूर्व पद में एव लगाकर एक वाक्य बनाना चाहिए जो इन्द्रिय-सन्निकर्ष, ज्ञातृव्यापार आदि अचेतन पदार्थों का व्यवच्छेद करके प्रमाण के स्वरूप को निरूपण करने में तत्पर है। तथा वे मति आदि पाँच प्रकार के ज्ञान दो भेद रूप ही हैं। इस प्रकार, उत्तर पद में एव लगाकर दूसरा वाक्य बनाना जो कि चार्वाक, सांख्य आदि के द्वारा मानी गयी एक, तीन, चार, पाँच आदि अन्य संख्याओं का निराकरण करके विशेष संख्या की व्यवस्था कराने का प्रधान कार्य कर रहा है अत: इस सूत्र द्वारा प्रमाण के स्वरूप और संख्या में पड़े हुए विवादों के निराकरणपूर्वक प्रमाण के स्वरूप का निश्चय और संख्या का विधान कर दिया गया है। अर्थात् उक्त दोनों कार्य इस सूत्र से ही हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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